छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य की आवाज…एक मिनिट के लिए आंखें बंद करें…और कल्पना करें जहां तक नजर जाए वहां तक फैले जंगल की, कभी देखे-सुने ना हो ऐसे पंछियों की आवाज की…सरकार कह रही है कि देश को कोयले की जरूरत है.हम उनसे पूछना चाहते हैं कि क्या देश को जंगलों,ताजी हवा की,साफ पानी की ज़रूरत नहीं है?

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बस! ठहरिए! छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में आपका स्वागत है.
जी हां! यह जंगल आपकी कल्पना की तरह ही खूबसूरत है. पर अब यह जमीं जंग का मैदान बनने के लिए आतुर हो रही है. सरकार और कॉरपोरेट जगत ने इस बर्बाद करने की ठान ली है.उनका सामना यहां के आदिवासियों से है. झारखंड में विकास के नाम पर आदिवासियों के साथ जो हुआ है वो सबके सामने है, अब बारी हसदेव की है. लेकिन हमारी इस कहानी में आपको जंग से ज्यादा जंगल के बारे में जानने को मिलेगा…बाकी फैसला आपके हाथ है!

हर लिहाज़ से खास है हसदेव
आखिर हसदेव ही क्यों?
क्या हो रहा है हसदेव में?
हर लिहाज़ से खास है हसदेव
हर हसदेव अरण्य नाम लिखकर इंटरनेट पर सर्च किया जाए तो विकिपीडिया खुलता है. जहां जंगल के बारे में तीन बातें बताई गईं हैं. पहली कि यह छत्तीसगढ़ में स्थिति है. दूसरा बहुत सघन जंगल है, आदिवासियों का जीवन इसी पर निर्भर है.

तीसरी, एक पूंजीवादी कंपनी इसे खोदकर तहस-नहस करने को तैयार है, जिसे सरकार ने ऐसा करने की मंजूरी भी दे दी है. हालांकि इन तीन बातों के अलावा भी हसदेव अरण्य में बहुत कुछ खास है.

हसदेव अरण्य भारत के सबसे पुराने जंगलों में एक है. यह कितना बड़ा जंगल है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जंगल का क्षेत्रफल (2000 वर्ग किलोमीटर) दिल्ली, बेंगलुरू और मुंबई जैसे शहरों को मिलाकर पूरा हो पाएगा. यहां करीब 3 हजार किस्म के पेड़-पौधे हैं.

करीब 3 हजार प्रकार की औषधियां मिलती हैं. सैंकडों की तादाद में जानवर बसते हैं. इसके अलावा जो सबसे अहम है वो ये कि यहां आदिवासी परिवार आज भी रह रहे हैं. जिनमें सबसे खास हैं पंडो और कोरवा. पंडो जनजातियों महाकाव्य महाभारत के ‘पांडव’ कबीले के सदस्य के रूप में खुद को विश्वास रखते है. कोरवा जनजातियों महाभारत की “कौरव” का सदस्य होने का विश्वास रखते है. इतिहास के लिहाज से ये दोनों ही जनजातियां अहम हैं और इनका पूरा अस्तित्व जंगलों पर निर्भर है.

इतना ही नहीं, हसदेव बांगो बैराज का कैचमेंट क्षेत्र है जहां से छत्तीसगढ़ की 4 लाख हेक्टेयर खेतों में सिंचाई की जाती है. इसके अलावा नदी, झरने, हरभरे पहाड़ों का कहना ही क्या!

जब तक छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब तक यह जंगल सुरक्षित था. सीधे तौर पर कहा जाए तो पूंजीवादियों की नजरों से बचा हुआ था. लेकिन हाल ही में इस जंगल के बारे में कुछ ऐसा पता चला है जिसने रातोंरात पूंजीवादियों को हसदेव आने पर मजबूर कर दिया.

आखिर हसदेव ही क्यों?
अभी कुछ साल ही हुए हैं. जब यह खुलासा हुआ कि हसदेव जंगल की हरियाली के नीचे काला सोना दबा है. काला सोना यानि कोयला. वो भी इतना (एक बिलियन मिट्रिक टन से ज्यादा) कि कई दशकों तक खुदाई की जाए तो भी खत्म ना हो. इस खुलासे के बाद हसदेव की जमीन सोना नज़र आ रही है.

इस खुलासे से पहले ही हसदेव अरण्य को वर्ष 2009 में “केंद्रीय वन पर्यावरण एवं क्लाइमेट चेंज मंत्रालय” ने खनन के लिए नो गो क्षेत्र घोषित किया था. लेकिन दो साल बाद ही 2011 में तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस क्षेत्र में 3 कोल ब्लॉक तारा, परसा ईस्ट,केते बासन को यह कहते हुए सहमति दी थी कि इसके बाद हसदेव अरण्य में किसी अन्य खनन परियोजना को स्वीकृति प्रदान नही की जाएगी.

इसके बाद जंग शुरू हुई और 2014 में माननीय नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने परसा ईस्ट केते बासन की वन स्वीकृति को निरस्त कर दिया. पर बात यहां थमी नहीं, केन्द्र सरकार ने सारे कायदों को तांक पर रखकर खनन परियोजनाओ को स्वीकति देना शुरू कर दिया है.

पूरे इलाके में कुल 20 कोल ब्लॉक चिह्नित हैं, जिसमें से 6 ब्लॉक में खदानों के खोले जाने की प्रक्रिया जारी है. इन परियोजनाओं में करीब 1862 हेक्टेयर निजी और शासकीय भूमि सहित सात हजार सात सौ तीस हेक्टेयर वनभूमि का भी अधिग्रहण होना है.

यानि ओपन-कास्ट माइनिंग के लिए 2000 एकड़ में फैले जंगल का सफाया करना पड़ेगा. अगर खुदाई होती है तो आदिवासी बेघर हो जाएंगे, पर्यावरण को बहुत बडा नुकसान होगा.

आदिवासियों का कहना है कि ये जंगल उत्पाद और खाने की चीजें देता है-महुआ, साल, तेंदू पत्ता, चिरौंजी, खुंखड़ी और लड़की (जंगल के उत्पाद जिनमें पत्ते, बीजें, मशरूम और आग के लिए लकड़ी शामिल हैं.) तेंदू पत्ते से हर आदिवासी परिवार को आमदनी हो जाती है.

ऐसे में अगर जंगल बर्बाद हो गए तो इन परिवारों का क्या होगा? क्योंकि इसके पहले भी आदिवासियों के पुर्नवास की खामियां सामने आ चुकी हैं. कहीं ऐसा ना हो कि सहरिया और बैगा जनजातियों की तरह हम इन्हें भी खो बैठें!

क्या हो रहा है हसदेव में?
ग्रामीण बताते हैं कि जंगलों की लगातार कटाई के कारण जानवरों का घर छिनने लगा है. कटाई करना है तो जानवरों को मारना होगा और जो जानवर बच गए हैं वे डर कर भागते फिर रहे हैं. कुछ तो इंसानों के तौर तरीकों से इतने खफा हैं कि वे भागकर गांवों के नजदीक आ रहे हैं, लोगों पर हमले कर रहे हैं. खुदाई के लिए जिन परिवारों ने पहले अपनी जमीनें दी थीं वे अब पछता रहे हैं. क्योंकि बदले में उन्हें रोजगार नहीं मिला, जंगल और जमीन भी हाथ से निकल गए.

नई परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों का कहना है कि सरकार कह रही है कि देश को कोयले की जरूरत है. हम उनसे पूछना चाहते हैं कि क्या देश को जंगलों, ताजी हवा की, साफ पानी की ज़रूरत नहीं है? सरकार कहती है कि कोयले से बिजली बनेगी. पर सरकार के पास ये अनुमान नहीं है कि उन्हें बिजली बनाने के लिए कितने कोयले की जरूरत है? यानि खुदाई अगर एक बार शुरू हुई तो फिर कभी नहीं रुकेगी.

आदिवासियों के सवाल लाज़मी हैं. उनका विद्रोह भी लाज़मी है. सोचिए अगर राष्ट्रपति भवन के नीचे कोयला मिलने की उम्मीद हो तो क्या उसे भी ऐसे ही खोदा जा सकता है? वैज्ञानिकों का दावा है कि दुनिया को जलवायु संकट से बचाने के लिए एक हजार अरब पेड़ लगाने की जरूरत है.

इतने पेड़ अगर वाकई लग जाएं और जीवित रहें तो वे 830 अरब टन कार्बन डाई आक्साइड को सोख लेंगे और दुनिया जलवायु संकट के घातक परिणामों से बच जाएगी. मगर असल में पेड़ लगाने और बचाने से ज्यादा कवायत इन्हें खत्म करने की हो रही है.

झारखंड में विकास के नाम पर पर्यावरण की जो तबाही हुई है वो हमारे सामने है. महाराष्ट्र में बुलेट ट्रेन परियोजना 54 हजार मैंग्रोव के पेड़ों को खाने जा रही है. समुद्र तटों के लिए मैग्रोव के जंगल बेहद महत्वपूर्ण माने जाते हैं. इसके पहले मुंबई-नागपुर एक्सप्रेस के निर्माण के लिए 258 किलोमीटर के हिस्से में एक लाख पेड़ों को काटा जाएगा. ब्राजील में हर मिनट एक फुटबॉल के मैदान जितना एमेजॉन का जंगल काटा जा रहा है. यानि ना तो हम सुधर रहे हैं ना दूसरे.

बहरहाल सरकार ने फैसला ने लिया है, पैसे वालों का जोर भी है, तो जंगल उजड़ना निश्चित सा लग रहा है. वहीं हसदेव अरण्य को बचाने वाले मोर्चे पर मुठ्ठीभर निहत्थे आदिवा​सी खड़े हैं. जिनके पास ना तो योजना है, ना साधन… पर उनके माथे की शिक्न यह बताने के लिए काफी है कि वे आने विनाश को लेकर हम सूटबूट वालों से कहीं ज्यादा परेशान हैं.

तभी तो कह रहे हैं कि अभी जाइए और जाकर हसदेव की हरियाली निहार लीजिए क्योंकि कोयले की खुदाई के बाद इस हरियाली पर बस धूल उड़ेगी!

छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य उत्तरी कोरबा, दक्षिणी सरगुजा व सूरजपुर जिले में स्थित एक विशाल व समृद्ध वन क्षेत्र है जो जैव-विविधता से परिपूर्ण हसदेव नदी और उस पर बने मिनीमाता बांगो बांध का केचमेंट है जो जांजगीर-चाम्पा, कोरबा, बिलासपुर जिले के नागरिकों और खेतो की प्यास बुझाता है. यह वन क्षेत्र सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नही बल्कि मध्य भारत का एक समृद्ध वन है, जो मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के जंगलो को झारखण्ड के पलामू के जंगलो से जोड़ता है. यह हाथी जैसे 25 अन्य महत्वपूर्ण वन्य प्राणियों का रहवास और उनके आवाजाही के रास्ते का भी वन क्षेत्र है.

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