*”जहां सड़कों पर लक्ष्मी बरसे और विकास धूल फांके : ये है बस्तर की कहानी”*
*चांद,मंगल तक पहुंचा देश, पर बस्तर पहुंचना आज भी है दुश्कर !*
डॉक्टर राजाराम त्रिपाठी : आजादी के 78 साल बाद भी बस्तर की यातायात सुविधाएं देश के अन्य हिस्सों की तुलना में नितांत निराशाजनक हैं। हाल ही में खबर आई कि इंडिगो अपनी जगदलपुर से रायपुर और हैदराबाद की उड़ानें बंद कर रहा है, जो बस्तरवासियों के लिए एक और झटका है। आश्चर्य का विषय यह है कि कुछेक समाचार पत्रों ने भले इसपर छुटपुट लिखा है किंतु किसी भी बड़े नेता ने न तो इसकी आलोचना की और ना ही इन मुद्दों को लेकर कोई मोर्चा खोलने की बात नहीं कही है। आने वाले दिनों में जगदलपुर से चल रही कुछ अनिवार्य सेवाएं भी अगर बंद हो जाए तो आश्चर्य का विषय नहीं है। 30 सालों बाद इस एयरपोर्ट का खुला ताला आगामी कुछ माह में फिर से बंद भी हो जाए तो किसी को क्या फर्क पड़ता है। क्योंकि यह कोई पहली बार तो है नहीं जब विकास का पहिया बस्तर में उल्टा घुमाया गया है।
बस्तर की प्रमुख समस्याओं में से एक यह है कि यहाँ यातायात का कोई संगठित ढांचा ही नहीं है। विशाखापट्टनम से बैलाडीला लौह खदानों तक की रेलवे लाइन, जो कि जापानियों की कृपा से बनी, 1969 में चालू हुई थी, और यह बस्तर के विकास के उद्देश्य के लिए नहीं, बल्कि बस्तर की पहली ढीला पहाड़ियों में दबे लोहे के अनमोल खजाने से अधिकतम लोहा निकालकर ले जाने के लिए स्थापित की गई थी। बस्तर की पहाड़ों में छिपा यह काला सोना, जिसे हम लोहा कहते हैं, जापान तक निरंतर पहुँचाया जाता रहा है। यह एक ऐसा व्यापार है जिसमें बस्तर से निकले 70-80 वैगन लोहा प्रतिदिन विशाखापट्टनम बंदरगाह तक पहुँचता है, जबकि बदले में हम एक रेलवे प्रणाली का झुनझुना ही पाते हैं। कहां जाता है कि बस्तर से जितना लोहा जापान गया है उसे लोहे के वाजिद मूल्य का आधा हिस्सा भी अगर बस्तर के लोगों को दे दिया जाता तो यहां के लोगों का जीवन स्तर अमेरिका से भी बेहतर होता। यह रेलवे लाइन और इस पर चलने वाली रेल की आवाज और उसकी सीटी हमें एक रेलवे प्रणाली का आभास तो देती है, परंतु वास्तविकता यह है कि इस मृग मरीचिका से बस्तर का कोई भला नहीं हुआ है। बस्तर में दुर्ग से रेल लाइन लाने की चर्चाएं हमने अपने बचपन में सुनी थी, परन्तु 40 सालों बाद आज भी बस्तर के लिए राजधानी तक रेलवे सेवा सपना ही है। रेललाइन के लिए आंदोलन करने वाली तीसरी पीढ़ी अब मोर्चे पर आ गई है किंतु इनके प्रयासों का नतीजा भी ‘ढाक के तीन पात’ ही हैं। ऐसा नहीं कि बस्तर के नेतागण इन समस्याओं से अनभिज्ञ हैं। यहां ज्यादातर नेता जमीनी नेता है औरवह सब कुछ जानते भी हैं और उसके लिए काफी कुछ प्रयास भी करते हैं । किंतु इन समस्याओं के स्थायी निजात पाने के लिए, जितना तीव्र प्रयास, जिस हद तक होना चाहिए उसे बिंदु तक कभी पहुंच ही नहीं पाते। राज्य अथवा केंद्र शासन के हाथ मोड़कर उनसे बस्तर के हित में जरूरी कार्य करवाने की हैसियत और ताकत का यहां के नेताओं में प्रायः अभाव ही रहा है।
दूसरी ओर कोऊ नृप होय हमें का हानी ? तथा ‘ संतोषम परम सुखम ‘ के साथ बस्तरिया जनता भी अपनी समस्याओं को लेकर काफी हद तक तटस्थ और उदासीन रही है। इसीलिए चाहे रेलवे लाइन का चिरस्थाई मुद्दा हो अथवा बेहतर सड़क का, बस्तर के आंदोलन भी बस कुछ एक घंटों की नारेबाजी, फोटो-सेशन और प्रेस विज्ञप्ति की रस्मोंअदायगी तक ही सीमित तक ही सीमित रहती है, कुछेक अपवादों को छोड़कर। राजधानी के स्वनामधन्य के भूमिपुत्र,युवा हृदय सम्राट, माटी पुत्र, दबंग, बाहुबली, महाबली आज उपाधिधारियों क के लिए बस्तर में दिलचस्पी केवल चित्रकूट, चिरौंजी वगैरह तक ही सीमित है। कहां जाता है कि लोकतंत्र में नेतृत्व की अकर्मण्यता,निष्क्रियता तथा राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी का खामी आज जनता भुगतती है। अब हमारे वाले बेचारे भी क्या करें, अगर ज्यादा उछलते हैं तो उनके आका नाराज हो जाते हैं। आका नाराज हुए तो टिकट और पद दोनों खतरे में, फिर भी बेचारे कोशिश तो कर ही रहे हैं, पर जितनी कोशिश हो रही है वह नाकाफी है। एक और सोच भी है कि हवाई यात्रा बंद होने से कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा, क्योंकि इनके ज्यादातर वोटर तो सड़क से चलते हैं ,और उनको पिछले 20-25 सालों में 8-10 घंटे जाम की आदत पड़ गई है इसलिए उनको कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। और फिर बड़े नेताओं के लिए तो जब चाहे निशुल्क हेलीकॉप्टर उपलब्ध है ही। जाकी पैर ना फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई! और मान लो माननीय श्रीमानजी कभी-कभार जाम में फंस भी गए तो उनके साथ चल रहे पुलिस के डंडे काम से कम उनकी गाड़ी के लिए तो रास्ता बना ही देते हैं। झेलना तो उसआम वर्ग को है, जो धीरे-धीरे इस स्थिति को ही अपनी नियति मान लिया है।
बस्तर के हवाई कनेक्शन की अगर बात करें तो बस्तर के जगदलपुर में हवाई पट्टी तो 1939 में ही बन गई थी। आजादी के बाद से ही प्रधानमंत्री नेहरू से लेकर माननीय मोदी जी एवं मंत्रियों की उड़न खटोले यहां उतरते भी रहे हैं। परंतु जनता जनार्दन के लिए वायु सेवा का विधिवत प्रारंभ 20 मार्च 1988 को हुआ था, जो क्षेत्रीय वायु परिवहन को बढ़ाने की दृष्टि से एक महत्वाकांक्षी योजना थी। दुर्भाग्यवश यह 4 महीने ही चल पाई, तथा लाभ हानि के गणित की चलते इसे बंद कर दिया गया और विकास के एक जरूरी महत्वाकांक्षी स्वप्न की भ्रूण हत्या हो गई। इसके बाद लगभग 30 सालों का लंबा सन्नाटा बस्तर वायु सेवा के,ऊ क्षेत्र में बना रहा। वर्तमान में, छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से जगदलपुर को जोड़ने वाली एकमात्र सड़क, जिसका निर्माण रियासत काल में शुरू हुआ था, आज भी जर्जर अवस्था में है। यह सड़क रायपुर से जगदलपुर तक लगभग 300 किलोमीटर की दूरी को लगभग 7 घंटे में तय करती है, लेकिन कई बार केशकाल घाट में गाड़ियां 8-10 घंटे तक जाम में फंसी रहती हैं, और एक बार अगर यहां जाम लग गया फिर या ये सफर नरक यात्रा बन जाती है, कई बार सारी रात गुजर जाती है पर जाम नहीं खुलता लोग गाड़ियों में कैद पड़े रहते हैं। गाड़ी का पानी खत्म हो जाता है इस घाट ना तो पानी की व्यवस्था है ना शौचालय की, नवजछोटे बच्चे गाड़ियों में दूध और पानी के बिना बिलबिलाते रहते हैं। कितने ही अभागे मरीज एंबुलेंस में पड़े-पड़े इस जाम में फंसकर दम तोड़ चुके हैं। अब इसके लिए इस सड़क के निर्माण तथा इसके समुचित प्रबंधन हेतु जिम्मेदार लोगों को न इन असमय मौतों का हत्यारा क्यों न माना जाए। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कठिन और अपेक्षाकृत बहुत ही ऊंचे और लंबे घाटों की जटिलता और भयावता की तुलना मे केशकाल का घाट कुछ भी नहीं है । विडंबना यह है कि केशकाल का जाम कोई लैंड स्लाइडिंग अथवा बर्फबारी जैसे अपरिहार्य प्राकृतिक कारणों से नहीं होता है, बल्कि घटिया सड़क निर्माण के कारण रोज बनते नए गड्ढों और छोटे बड़े वाहनों की अनियंत्रित यातायात के कारण होता है। यह सारे कारण मानव निर्मित हैं। केशकाल-घाट केवल जाम,धूल-धक्कड़ और अनियंत्रित यातायात का प्रतीक बन गया है।
हालाँकि, करोड़ों का बजट सड़क और रेलवे विकास के लिए आवंटित किया जाता है, लेकिन यह पैसे अक्सर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं। कहा जाता है की रायपुर-जगदलपुर सड़क पर अब तक जनता का इतना पैसा खर्च किया गया है कि उस रकम की नोटों की गड्डियों को सड़क पर बिछाकर ,नोटों की ही फोरलेन सड़क बनाई जा सकती थी, और यह अतिशयोक्ति नहीं है। कहा जाता है कि सरकारी विभाग, ठेकेदार तथा अन्य सभी सड़क निर्माण तथा सड़क मरम्मत दोनों में ही अकल्पनीय भारी कमीशन खोरी करते हैं, और शायद इसीलिए यहां यह कहावत भी मशहूर है कि इस रोड के ठेकेदार-इंजीनियर वगैरह दीपावाली को इस सड़क पर दिए जलाते हैं क्योंकि उनके खजाने में लक्ष्मी यहीं से बरसती हैं। दरअसल घटिया निर्माण सामग्री के उपयोग के कारण है ही यह सड़क बार-बार उखड़ बबंहो जाती हैं, और जितनी बार सड़क खराब हो उतरी बार कमाई होती है।
एक और तर्क दिया जाता है कि हाइवा जैसे भारी वाहन लोह-अयस्क भरकर इस सड़क पर चलते हैं, जिससे सड़कें टूट जाती हैं, तो यह उल्लेख करना आवश्यक है कि अमेरिका और यूरोप में भारत के इन भारी वाहनों से चार गुना ज्यादा भारी ट्रैलर वाहन चलते हैं, फिर भी वहाँ की सड़कें सालों-साल नहीं टूटतीऔर अगर कभी कोई सड़क टूटती भी है तो रातों-रात उसकी मरम्मत कर ली जाती है, और यह मरम्मत ईमानदारी से की जाती है। परंतु हमारे यहां जब बहुसंख्य लोगों की समस्या सीधे सीधे कुछेक शक्तिशाली लोगों की कमाई या तिजोरी से जुड़ी हो तो स्थिति गंभीर हो जाती है।
बस्तर संभाग लगभग 40,000 चालीस हजार वर्ग किलोमीटर में फैला है, जोकि विश्व के दर्जनों देशों से बड़ा क्षेत्र है और यह समूचा क्षेत्र मुख्य रूप से केवल एक सड़क पर निर्भर है। यदि बस्तर को आगे बढ़ना है, तो उसे न केवल बेहतर यातायात सुविधाओं की आवश्यकता है, बल्कि एक नए राज्य के रूप में अपनी पहचान भी बनानी होगी। आज देश चंद्रमा की ओर कदम बढ़ा चुका है, मंगल ग्रह पर अपने यान भेज चुका है, और सूर्य के अभियान पर भी प्रगति कर रहा है, फिर भी इसकी सड़कें और यातायात सुविधाएँ जर्जर क्यों हैं? और ऐसे में बस्तर के पर्यटन को बढ़ावा देने की बड़ी बड़ी हवा-हवाई बातें खाली हवाबाजी व गलाबाजी के अलावा कुछ नहीं हैं । यह सारे हालात एक दिशा विशेष की ओर इंगित करते हैं कि शोध हो या स्वास्थ्य हो, या फिर रोजगार सृजन का मुद्दा हो या फिर व्यावसायिक बस्तर का विकास का मुद्दा हो, बिना पृथक राज्य बने कुछ भी संभव नहीं है।
और अगर ऐसा ही है तो फिर एक सड़क के लिए रोने पीटने अथवा रेल के लिए आंसू बहाने या फिर हवाई सेवा बंद होने पर छाती पीटने की बजाय सबसे पहले बस्तर को पृथक राज्य बनाने की मांग को लेकर ही बस्तरियों को आंदोलन करना चाहिए। एक कहावत है कि ‘हाथी के पांव में सबका पांव’ , यानि कि यदि बस्तर पृथक राज्य बन जाता है तो एक साथ कई समस्याएं एक झटके में हल हो जाएंगी । सबसे पहले तो बस्तर के अंतहीन शोषण का सिलसिला बंद होगा। बस्तर के प्राकृतिक संसाधनों की अंधी लूट खसोट पर रोक लगेगी। बस्तर के लोग बस्तर में बैठकर बस्तर की विकास की व्यवहारिक योजना बना पाएंगे, और चूंतआकि उसका क्रियान्वयन भी बस्तर के लोगों के हाथ में होगा तो निश्चित रूप से बेहतर क्रियान्वयन भी हो पाएगा। बस्तर के राज्य बनने से स्वाभाविक तथा भौगोलिक सभी कारणों से इसकी राजधानी जगदलपुर ही होगा होगी और ऐसी स्थिति में बस्तर को देश के भी भं अन्य भागों से रेल सड़क तथा हवाई मार्ग से जोड़ना अनिवार्य हो जाएगा।
( राष्ट्रीय संयोजक : अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) *संस्थापक : जनजातीय शोध एवं कल्याण संस्थान,)