‘वॉइस ऑफ स्लम’…हम 5 से 13 साल के झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों को अपने स्कूल में एडमिशन देते हैं…उन्हें इस तरह तैयार किया जाता है कि वे अपनी उम्र के अनुसार किसी स्कूल में पढ़ने के लायक हो जाएं

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कुछ करने की जिद हो तो सब कुछ संभव है। जब हम कचरे बीनने वाले समाज को बदलने की कोशिश कर सकते हैं, तो दुनिया में कोई भी कुछ भी कर सकता है। ये शब्द हैं देव प्रताप सिंह के, जो मात्र 11 साल की उम्र में अपने घर से भाग गए थे। भूख मिटाने के लिए रेलवे स्टेशन पर कचरा उठाया, होटलों में बर्तन भी धोए। यहां तक कि मजबूरी में छोटी-मोटी चोरियां कीं और पुलिस स्टेशन में भी बंद रहे।

आज वे अपनी पत्नी चांदनी खान के साथ दूसरे बच्चों की वॉइस, यानी आवाज बने हैं। कोई दूसरा बच्चा उनके जैसा समाज से कटा, अनपढ़ या भूखा न रहे, ऐसे बच्चों के लिए ‘वॉइस ऑफ स्लम’ नाम से NGO की शुरुआत की। जिसके जरिए झुग्गी-झोपड़ियों के हजारों बच्चों की मदद कर रहे हैं। वे बच्चे, जो न तो स्कूल जाना चाहते थे न ही उनके परिवार में कोई पढ़ा है।

आज इनकी बदौलत बच्चे सड़क पर फल-सब्जी बेचने की बजाय इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने जाते हैं, फर्राटेदार इंग्लिश में बात करते हैं और कुछ अलग करने की चाह भी रखते हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इन दोनों को टीचर्स डे पर सम्मानित भी किया।

‘वॉइस ऑफ स्लम’, दिल्ली स्थित एक NGO है, जो समाज के अंडर प्रिविलेज्ड बच्चों को एजुकेशन के जरिए समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का काम कर रहा है। देव प्रताप कहते हैं, “शिक्षा दुनिया का सबसे शक्तिशाली हथियार है। इससे कुछ भी बदल जा सकता है। कई बार ऐसा कहना काफी नहीं होता, आप उन बच्चों को कैसे पढ़ा सकते हैं, जो पढ़ना ही नहीं चाहते? जिनके परिवार में आज तक कोई पढ़ा न हो?

अगर सरकारी स्कूल में इन बच्चों को एडमिशन मिल भी जाता है तो ये सही मार्गदर्शन और जागरूकता के अभाव में पढ़ नहीं पाते। इनके लिए हमने वॉइस ऑफ स्लम (VOS) की शुरुआत की। जिसके जरिए हम इन बच्चों को न सिर्फ शिक्षा देने की कोशिश करते हैं, बल्कि इन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ रहे हैं।”

वॉइस ऑफ स्लम (VOS) में हर साल करीब 470 बच्चों का एडमिशन होता है। इनमें ऐसे बच्चे होते हैं जो कभी रेलवे स्टेशन पर कचरा बीनते थे, सब्जी या फूल बेचते थे या किसी अमीर के घर झाड़ू-पोंछा लगाते थे। आज वे बच्चे पढ़ रहे हैं और जिंदगी में आगे बढ़ रहे हैं।

देव प्रताप मध्य प्रदेश के चंबल के डबरा के रहने वाले हैं। उनका बचपन दूसरे बच्चों जैसा ही था। पिता की अच्छी नौकरी थी और मां हाउस वाइफ थीं। देव बताते हैं कि जब वे स्कूल जाते थे तो घर से कुछ पैसे बिना किसी को बताए ले जाते थे। जिससे उनके दोस्त समोसा-जलेबी खाया करते थे। एक दिन एक बड़ी क्लास के बच्चे की नजर देव पर पड़ गई। उन बच्चों ने देव के पैसे से जुआ खेलना शुरू कर दिया। तब उनकी उम्र मात्र 11 साल थी।

जुआ खेलने की रकम हर दिन बढ़ती जाती। पैसे न देने पर बड़े बच्चे उन्हें बहुत मारते थे और घर से चोरी कर पैसे लाने को कहते थे। देव ने इस बात का जिक्र अपनी मां से डरते- डरते किया, लेकिन मां ने इस पर ध्यान नहीं दिया। उन बच्चों से बचने के लिए उन्होंने पिता की घड़ी चुराकर बेच दी।

एक बार बड़ी क्लास के दो बच्चों का झगड़ा हुआ और एक का पैर टूट गया। पूरा मोहल्ला देव के घर शिकायत करने के लिए इकट्ठा हो गया। वे पापा की मार के डर से घर से 120 रुपए लेकर भाग गए। घर से कुछ ही दूर रेलवे स्टेशन था। जो ट्रेन खड़ी थी उसमें बैठ गए और जब नींद खुली तो घर से दूर जा चुके थे।

देव की जब नींद खुली तब ट्रेन मध्य प्रदेश के ग्वालियर रेलवे स्टेशन पर खड़ी थी। देव बताते हैं, “मुझे बहुत भूख लगी थी। मैंने स्टेशन पर घर से लाए हुए पैसों से खाना खाया। रात को स्टेशन पर ही सो गया। इस तरह 3 दिन निकल गए और सारे पैसे खत्म हो गए। मैं घर वापस जाने से डर रहा था और मुझे भूख लगी थी। कुछ समझ नहीं आ रह था की क्या करूं?

स्टेशन पर कुछ बच्चे कचरा बीन रहे थे, जिससे उनकी छोटी-मोटी कमाई हो जाती थी। मैंने भी वही करना शुरू कर दिया। इस तरह मैं एक कचरा बीनने वाला बन गया। कई बार कचरे की स्मेल से बचने के लिए बच्चे थिनर का नशा करते थे। मैं भी करने लगा। फिर हम स्टेशन पर छोटी-मोटी चोरियां भी करने लगे। एक दिन हमें पुलिस वाले उठाकर ले गए। यह मेरी तीसरी जिंदगी की शुरुआत थी, दूसरी तो मैं पहले ही जी रहा था।”

देव को पुलिस स्टेशन में करीब 15 दिन रहना पड़ा। देव बताते हैं, “पुलिस वाले हमसे खूब काम करवाते थे। हमें टॉर्चर भी करते थे। मैं वहां टॉयलेट में सोया और तब मुझे एहसास हुआ कुछ भी हो जाए अब मैं दोबारा इस तरह का काम नहीं करूंगा।

जब मैं पुलिस स्टेशन से निकला तो एक ढाबे में बर्तन धोने की नौकरी की। वहां मैं काम करता और टाइम पर पैसे भी मिल जाते थे। एक दिन मुझे लगा की बर्तन धोने से अच्छा तो वेटर का काम है सिर्फ कस्टमर से ऑर्डर ही तो लेना है।

पहली सैलरी से मिले पैसों से एक वाइट शर्ट, ब्लैक पेंट और सेकंड हैंड जूते खरीदे। फिर एक दूसरे ढाबे पर काम मांगने गया, काम मिल भी गया। कुछ दिनों बाद किसी ने कहा गोवा चले जाओ, वहां इस काम के ज्यादा पैसे मिलेंगे। मैं गोवा चला गया, इस तरह जिंदगी पटरी पर आने लगी। मुझे गोवा में घरवालों की याद आने लगी, एक दिन मां को फोन किया। मां और मैं फोन पर घंटों रोए। घरवालों के लिए वापस दिल्ली आ गया।”

दिल्ली में देव ने अपने एक रिश्तेदार की मदद से मोबाइल शॉप किराए पर शुरू की। देव कहते हैं, “किस्मत मेरा साथ दे रही थी और मैं आगे बढ़ रहा था। मेरी दुकान काफी अच्छी चलने लगी। ये देख दुकान के मालिक ने मुझसे दुकान वापस ले ली। मैं फिर से सड़क पर आ गया। उसके बाद मैं नौकरी कर आगे बढ़ता गया। एक समय आया जब मुझ जैसा पांचवी पास ‘एरिया सेल्स मैनेजर’ बन गया। अच्छी सैलरी के साथ अच्छी जिंदगी चलने लगी।

कुछ दिन बाद मेरी मां मुझसे मिलने आई। मैंने उनको सोने की कान की बालियां दी। मां की खुशी का ठिकाना नहीं था। सालों बाद बेटा मिला और वह भी एक अच्छी जिंदगी जी रहा था। मां इस पल के लिए भगवान का शुक्रिया करना चाहती थी। हम दोनों ने गोवर्धन परिक्रमा करने का प्लान किया। मथुरा के लिए मैं और मां अलग-अलग जा रहे थे। मेरी मां का बस एक्सीडेंट हो गया और उनकी डेथ हो गई।

मैं फिर से हार गया। एक दम पागल हो गया। सालों बाद खुशी मिली थी और वह भी चली गई। जीने का मकसद ही खत्म हो गया। एक दिन मैं रेलवे स्टेशन पर बैठा था। सामने बच्चे कचरा बीन रहे थे। मुझे लगा बस, अब इनके लिए ही काम करूंगा।

मां को खोने के बाद देव को उनकी पत्नी चांदनी का साथ मिला। चांदनी का भी बैकग्राउंड देव जैसा ही था। वे भी कभी रैग पिकर हुआ करती थीं। देव कहते हैं, “मुझे कहीं से चांदनी के बारे में पता चला, तब वे किसी NGO में काम कर रही थीं। वे उस NGO को छोड़ने वाली थीं। मैंने उनसे बात की तो पता चला, वे भी इन बच्चों की मदद करना चाहती हैं। फिर हम दोनों मिलकर कई NGO में काम मांगने गए। चूंकि हम पढ़े-लिखे नहीं थे, तो हमें काम नहीं दिया।

हम हार नहीं माने, हमने खुद का NGO शुरू करने का मन बना लिया। हम दोनों के पास पैसे नहीं थे। मेरे पास तब सिर्फ एक बाइक और एक लैपटॉप था। मैंने उन्हें बेच दिया। जो पैसे मिले उससे एक टीवी और एक स्मार्ट फोन खरीदा। हम काम करने लगे, लेकिन अब भी पैसा हमारी सबसे बड़ी मुसीबत थी। एक समय आया जब हम हारने लगे। फिर एक दिन हमने सोचा क्यों न लोगों से मदद मांगी जाए।”

देव ने फेसबुक के जरिए लोगों से वॉइस ऑफ स्लम के लिए सिर्फ एक रुपए डोनेट करने को कहा। एक दिन में ही 10 हजार की मदद मिल गई। और फिर शुरू हुआ वॉइस ऑफ स्लम का सिलसिला।

2016 देव और चांदनी ने वॉइस ऑफ स्लम को ऑफिशियली रजिस्टर करा लिया। आज उनकी टीम में करीब 30 लोग काम कर रहे हैं। देव बताते हैं, “हम 5 से 13 साल के झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों को अपने स्कूल में एडमिशन देते हैं। उन्हें इस तरह तैयार किया जाता है कि वे अपनी उम्र के अनुसार किसी स्कूल में पढ़ने के लायक हो जाएं। हमारे यहां स्पेशल टीचर्स हैं जो बेंगलुरु से आए हैं। वे बच्चों को एक साल में किसी न किसी स्कूल में एडमिशन लेने लायक बना देते हैं।

अब हमारा काम उन बच्चों को किसी अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में एडमिशन दिलाना है। वॉइस ऑफ स्लम से जाने के बाद भी हम उन बच्चों को ट्रैक करते रहते हैं। देखते हैं कि बच्चा स्कूल जा रहा है या नहीं। पढ़ रहा है या नहीं। उसके खाने-पीने से लेकर लेकर उनकी कई जरूरतों को हम पूरा करने की कोशिश करते हैं।”अब तक देव और चांदनी वॉइस ऑफ स्लम के जरिए 15000 से ज्यादा बच्चों को पढ़ाने में कामयाब हुए हैं।

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