छत्तीसगढ़ के जंगलों में केंद्रित माओवादी संघर्ष को समाप्त करने के लिए यदि बातचीत से समाधान होना है, तो भारत के माओवादी, नेपाली माओवादियों से कुछ सीख ले सकते हैं।
मुझे करीब बीस साल पहले नेपाली माओवादी नेताओं से मिलना याद है जब मैं बीबीसी के साथ काम करता था। उनके नोएडा और बैंगलोर में गुप्त ठिकाने हुआ करते थे और बिना नंबर प्लेट के एंबेसडर कारों में वे हमसे मिलने आते थे।
एक दिन मैंने उनमें से कुछ से पूछा, “कृपया मुझे बताओ कि ये चल क्या रहा है? आप लोग नेपाल में क्रांति की बात करते हैं, वहाँ चल रहे युद्ध में सैकड़ों आम लोग मर रहे हैं, और यहाँ आप नेतागण भारतीय राजधानी में इंटेलिजेंस ब्यूरो के वाहनों में घूम रहे हैं!
उन्होंने शांति से उत्तर दिया था, “हम आज नेपाल के लगभग 80% हिस्से को नियंत्रित करते हैं। लेकिन हम यह भी समझ चुके हैं कि भारत हमें कभी भी काठमांडू पर कब्जा नहीं करने देगा। अमेरिका सुनिश्चित करेगा कि ऐसा न हो। इसलिए हम दूसरे सर्वश्रेष्ठ की तलाश कर रहे हैं जो हासिल किया जा सकता है।”
उन्होंने समझाया कि “जनयुद्ध की रणनीति की तरह, संयुक्त मोर्चा भी माओ द्वारा दी गई एक रणनीति है। हम नेपाल के लिए धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र प्राप्त करने के लिए समान विचारधारा वाले ओवर ग्राउंड समूहों के साथ गठजोड़ करके संयुक्त मोर्चे की रणनीति का उपयोग करेंगे।”
और ठीक यही अगले कुछ वर्षों में काठमांडू की सड़कों पर तब तक नज़र आया था जब तक शांति वार्ता के परिणामस्वरूप नेपाल के लिए एक धर्मनिरपेक्ष और परिपक्व लोकतंत्र नहीं बन गया, जिसमें माओवादियों की प्रमुख भूमिका थी। उसके बाद से नेपाल धरती पर स्वर्ग नहीं बन गया है लेकिन बेवजह हजारों लोगों की जान लेने वाली हिंसा का अंत हुआ है।
भारत में अब भी कुछ कट्टर माओवादी नेता किसी भी क़ीमत पर बस्तर जैसे “आधार इलाक़ों” में क्रांति की लौ को तब तक जलाए रखना चाहते हैं जब तक कि “पूंजीवाद अपने ही वजन तले धराशायी नहीं हो जाता”, पर अब यह भी लग रहा है उनके ही कुछ नेता संयुक्त मोर्चे की बदली हुई रणनीति के तहत गठबंधन बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं।
भारतीय राज्य सिलगेर (जहां उन्होंने एक पुलिस शिविर का विरोध कर रहे निहत्थे लोगों को मारा था) तथा उस जैसी अन्य जगहों पर भी अनुशासनहीन सैनिकों को दंडित न कर लोगों को ज़बरदस्ती माओवादियों की ओर और धकेल रहे हैं । पर उन्हीं जगहों पर नीति में बदलाव घोषित किए बिना ही माओवादी इन अवसरों का इस्तेमाल आदिवासियों के हितों के साथ खुद को जोड़कर एक “संयुक्त मोर्चा” बनाने के लिए कर रहे हैं।
सिलगेर जैसी जगहों पर ओवरग्राउंड संगठनों के प्रेस नोट अक्सर शुद्ध हिंदी में सैद्धांतिक विवरणों के साथ (स्वयं माओवादियों की शैली के समान) लिखे जाते हैं जो किसी ग्रामीण आदिवासी युवा के लिए लिखना साधारण रूप से मुश्किल है जो इन आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे हैं । वे “जल, जंगल और जमीन” की संवैधानिक मांगों को प्रमुखता से उठाते हैं। ऐसा लगता है चूंकि क्रांति नहीं होगी, यह “दूसरे सर्वश्रेष्ठ” की स्वीकृति है।
ये आंदोलन संवैधानिक अधिकारों के साथ सड़क और पुलिस शिविर का भी विरोध करते हैं। वे माओवादियों के लिए कठिन सवाल कभी नहीं उठाते जैसे मुखबिर होने के आरोप में आदिवासियों की हो रही नियमित हत्याओं का मामला। लेकिन फिर भी सिलगेर की तरह के ये आंदोलन बहुत ही स्वागत योग्य संकेत हैं जिनके साथ काम किया जाना चाहिए।
माओवादियों का अभी भी बस्तर के 37% इलाक़े पर क़ब्ज़ा है (बस्तर आकार में केरल राज्य से बड़ा है) । 5 लाख से अधिक लोग उनके प्रत्यक्ष नियंत्रण में रहते हैं। लेकिन उनके आंदोलन का कोई भविष्य नहीं है क्योंकि मध्य भारत के वनवासी लोगों ने अपना विचार बदल दिया है और अब उन्होंने माओवादी आंदोलन से अपनी सहमति वापस ले ली है।
पिछले साल मार्च में दूसरी कोरोना लहर से पहले अबूझमाड़ से रायपुर शांति पदयात्रा के दौरान माओवादियों ने अपने प्रेस नोट में संकेत दिया था कि अगर उनके कुछ शीर्ष नेताओं को जेल से रिहा कर दिया जाता है, तो वे बातचीत में उनका नेतृत्व कर सकते हैं। इसे नंबर 2 माओवादी नेता प्रशांत बोस ने अपनी गिरफ्तारी से पहले एक साक्षात्कार में दोहराया था। बोस जैसे कट्टरवादी से इस तरह का वक्तव्य आना एक आश्चर्य की बात थी। सरकार को इन प्रस्तावों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देनी चाहिए।
और अगर बातचीत होनी है, तो माओवादियों के पास भारतीय आदिवासियों के पास मौजूदा उपलब्ध संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करवाने के लिए बात करना एक आसान रास्ता होगा। भारतीय संविधान आदिवासियों को “जल, जंगल, जमीन” के नारे में समाहित कुछ विशेष अधिकार प्रदान करता है, लेकिन 75 वर्षों के बाद भी ये अधिकांश अधिकार केवल कागजों पर ही हैं। मध्य भारत में शांति के बोनस के साथ, माओवादियों के माध्यम से भारतीय आदिवासियों को भारतीय संविधान दिलाने का राज्य के लिए भी यह एक अच्छा अवसर है।
भारत में माओवादी आंदोलन किसानों और मुख्य रूप से भूमि अधिकारों के लिए एक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ। लेकिन 50 साल बाद यह केवल वन क्षेत्रों तक ही सीमित है और आज 99% लड़ाके आदिवासी हैं। यह सही समय है जब माओवादी उन आदिवासियों के लिए कुछ हासिल करने की कोशिश करें जिन्होंने पिछले 40 वर्षों में उनके आंदोलन के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। माओवादियों के लिए आदिवासी का कर्ज चुकाने का समय अब आ गया है।
इसका विकल्प, राज्य की एक अति हिंसक कार्रवाई, को सहन करना कठिन होगा। सरकार के एक हिस्से को लगता है कि वे कुछ वैसा ही कर सकते हैं जैसा श्रीलंका ने लिट्टे को कुचलने के लिए किया था। इस तरह के प्रयास में हजारों गरीब भारतीय मारे जाएंगे और उनके करीबी माओवादियों की तीसरी लहर के लिए तैयार रंगरूट होंगे। 1972 में भी एक बार राज्य ने माओवादियों को ख़त्म कर दिया था। अब समय आ गया है कि आधी सदी पुरानी इस हिंसक समस्या के समापन की दिशा में काम किया जाए।
भारत नेपाल नहीं है और अफगानिस्तान भी नहीं है। यहां हिंसा से कुछ भी संभव नहीं है, न आज और न ही 50 साल बाद। किसान अब हिंसा के रास्ते के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने पंजाब में शांति से जीत हासिल की है। आदिवासियों के लिए भारतीय संविधान हासिल करने का समय आ गया है जिसे आज तक कोई भी लोकतांत्रिक आंदोलन हासिल नहीं कर सका है। और यदि माओवादी यह देख सकें कि उनका भविष्य इसी लक्ष्य को बढ़ावा देने में है, तो वे एक ऐसे संघर्ष को समाप्त करने में रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं, जिसके आगे बढ़ने का कोई औचित्य नहीं है।