रायपुर:गरबा गुजरात, राजस्थान और मालवा प्रदेशों में प्रचलित एक लोकनृत्य है जिसका मूल उद्गम गुजरात है। आजकल इसे पूरे देश में आधुनिक नृत्यकला में स्थान प्राप्त हो गया है ।माता के दरबार में गरबा खेलने का धार्मिक महत्व है। मान्यता है कि मां अंबे ने महिषासुर का वध किया ।महिषासुर के अत्याचारों से मुक्ति मिलने पर लोगों ने नृत्य किया, इस नृत्य को ही गरबा के नाम से पहचाना जाता है। श्रद्धालुओं का मानना है कि मां अंबे को ये नृत्य बेहद पसंद है ।इसलिए घट स्थापना होने के बाद इस नृत्य का आरंभ होता है। इसलिए आपको हर गरबा नाईट में काफी सजे हुए घट दिखायी देते हैं। जिस पर दिया जलाकर इस नृत्य का आरंभ किया जाता है। यह घट दीपगर्भ कहलाता है और दीपगर्भ ही गरबा कहलाता है।
यह बहुत प्रसन्नता व गर्व का विषय है कि चम्पेश्वर गिरि गोस्वामी जी के द्वारा छतीसगढ़ी भाषा में भी पहला गरबा गीत लिखा गया और संगीत बद्ध किया गया और गोपा सान्याल जी द्वारा गाया गया।गीत का कोरस ही तनमन को झंकृत कर देता है। पांव स्वतः ही थिरकने लगते हैं। “गीत ले बलावंव मा” तोर बिन कुछ नई भावय माता, मन तोला गोहरावय माता” इस गीत के बोल भले ही छतीसगढ़ी शब्दों में हैं पर श्रोताओं के समझने में बिल्कुल कठिनाई नही होगी।वाकई यह माता का आशीर्वाद ही है जो अन्तरा हो या मुखड़ा बेहतरीन और भक्तिमय बन पड़ा है। कण-कण में माता के होने का एहसास करवाता है।गीत के बोल के साथ ही संगीत और गोपा जी की आवाज़ का जादू खूब मन मोह लेता है। छतीसगढ़ी गरबा गीत के लिए चम्पेश्वर जी,गोपा जी और उनकी टीम को बहुत बहुत बधाई।आने वाले समय में यह गीत माता पंडाल और दरबार में अवश्य ही धूम मचाएगा