शख्सियत…सबसे पिछड़े तथा संवेदनशील क्षेत्र बस्तर में अपने बूते पर 7 एकड़ पर उगाया जंगल,संरक्षित की 400 से भी अधिक प्रजाति की वनस्पतियां…इस सफर में कई बार ठोकरें खाई,मुंह के बल गिरे भी,फिर उठ खड़े हुए,बार बार गिरे, हर बार उठे,,,पर रुके नहीं और न रुकेंगे

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*अब तक सात लाख से अधिक पेड़-पौधे लगा चुके हैं डॉ त्रिपाठी

इन्होंने देश के सबसे पिछड़े तथा संवेदनशील क्षेत्र बस्तर में अपने बूते पर 7 एकड़ पर उगाया जंगल,संरक्षित की 400 से भी अधिक प्रजाति की वनस्पतियां।क् यहां पर इन्होंने प्राकृतिक रहवास में ऐसी 32 दुर्लभ वन औषधियों को संरक्षित किया है, जो इस पृथ्वी से विलुप्त प्राय मानी जा रही हैं, तथा जिन्हें वैश्विक “रेड डाटा बुक” में वर्गीकृत किया गया है।

बिना किसी सरकारी गैर सरकारी अथवा बाहरी मदद के, इतने बड़े-बड़े काम कर लेना, विशेषकर सात लाख से अधिक पेड़ पौधों का रोपण कर उन्हें जिंदा भी रखना, यह असंभव से लगने वाले कार्य आपने कैसे कर दिखाया, यह पूछे जाने पर डां त्रिपाठी बड़ी सहजता से कहते हैं कि, हमें तो पता ही नहीं चला कि, कैसे साल दर साल, शनै:शनै: पिछले 25 वर्षों में हमने छोटे-बड़े लगभग सात-लाख से भी अधिक पेड़ पौधे यानी कि ‘आक्सीजन की फैक्ट्रियां’ लगा डाली। यह हम सबने मिलकर किया, यह टीम वर्क है !! वृक्षारोपण के महत्व पर डॉक्टर त्रिपाठी कहते हैं कि, एक वयस्क पेड़ प्रतिदिन सात लोगों के लिए जरूरी आक्सीजन (प्राणवायु) यानी लगभग 230 लीटर #ऑक्सीजन रोज (@230 lites #OXYGEN per day ) देता है !!

अब आप लोग पर्यावरण दिवस क्यों नहीं मनाते यह पूछे जाने पर उन्होंने बताया की पर्यावरण दिवस मनाना एक अच्छी पहल है इससे समाज में पर्यावरण को लेकर जागरूकता का संदेश जाता है किंतु हमारा समूह वर्षा के पूरे 3 महीने पेड़ पौधे लगाने का कार्य करता है तथा शेष 9 नौ महीने लगातार इन पेड़ पौधों के संरक्षण, संवर्धन, देखभाल का कार्य करता है। यही कारण है की हमारे द्वारा लगाए गए पेड़ पौधे आज गगनचुंबी जंगल में बदल गए हैं। जबकि पर्यावरण दिवस पर खानापूर्ति के नाम पर समारोह और आयोजनों में धूमधाम से रोपित किए गए पौधे केवल फोटोग्राफी में ही जिंदा रहते हैं, हकीकत में अधिकांश अभागे पौधे कुछ महीनों में ही मर जाते हैं ,और अगले वर्ष फिर उन्हीं स्थलों पर पर्यावरण दिवस श तथा वृक्षारोपण का आयोजन किया जाता है।

अपनी इस लीक से हटकर की गई अब तक की यात्रा के संघर्षों के बारे में पूछे जाने पर वे बताते हैं कि, पर्यावरण तथा वन औषधियों की संरक्षण संवर्धन को लेकर घोर राजनैतिक उदासीनता तथा अड़ियल नौकरशाही के पूर्वाग्रहों के चलते शुरुआत में हमारे प्रयासों की हंसी उड़ाई गई , कई स्तरों पर जटिल बाधाएं भी खड़ी की गईं, हालांकि माननीय एपीजे अब्दुल कलाम साहब, अजीत जोगी जी जैसे कुछ नेताओं व कुछेक अच्छे नौकरशाहों ने हमारा उत्साह भी बढ़ाया तथा पीठ भी ठोंकी , परंतु कुल मिलाकर यह सफर दिए और तूफान की लड़ाई की भांति ही रहा। यह कमाल ही है कि, दिया बुझा नहीं, और आज भी टिमटिमा रहा है।

इस सफर में हमने कई बार ठोकरें खाई, मुंह के बल गिरे भी, फिर उठ खड़े हुए, बार बार गिरे , हर बार उठे,,,पर रुके नहीं और न रुकेंगे। अपने ही हाथों से लगाए हुए और अब अपने से दुगने मोटे,आकाश छूते इन पेड़ों की घनेरी छांव में इनके साथ सट कर खड़े होने पर, एक और जहां प्रकृति की सत्ता के संम्मुख अपनी लघुता का एहसास होता है, वहीं दूसरी ओर इस ढाई दशक के कठिन सफर में मिली तमाम चोटों का दर्द और टीस, शरीर और मन की थकावट का एहसास सब कुछ, कुछ पलों के लिए छूमंतर हो जाते हैं ।

इस संघर्ष यात्रा में मिली उपलब्धियों के लिए वह कहते हैं कि मैं अपने दिल की गहराइयों से धन्यवाद देना चाहूंगा, शमेरे प्यारे बस्तर को, मेरे सभी छोटे बड़े परिजनों को, “मां दंतेश्वरी हर्बल समूह” के उन सभी साथियों को, जो इस कठिन सफर के हर उतार चढ़ाव में, हर मोड़ पर, पूरी मजबूती के साथ सीना तानकर, हमारे बगल में खड़े रहे,और पुरजोर ताकत से अड़े रहे, हमारे इन प्यारे दोस्तों इन बुलंद हौसला मंद गर्वीले ” पेड़ों” की तरह…..।

डॉ राजाराम त्रिपाठी से हुई बातचीत के आधार पर…….

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