अंतर्मन को पढ़ने की केवल एक ही भाषा”प्रेम”…युवा कलमकार विश्वनाथ देवांगन उर्फ मुस्कुराता बस्तर की कलम से….. रवि और संध्या की प्रेम की अनोखी दास्तान *तुम मेरे हो*

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‘अरे! ओए,चुप तुझे भी पैसा चाहिये,…क्या करेगा पैसा को,पैसा-पैसा चिल्लाता है,
(सेठ ने रवि को झिड़की दी |)

रवि – सेठ जी, मुझे पैसे दीजिये ना,मेरे पापा बहुत बीमार हैं,दवाई लानी है,दे दीजिए ना सेठ जी,मैं हाथ जोड़ता हूं | काम भी तो एक सप्ताह किया हूं |

ये 150/- रूपये ले और चल निकल तू,….सुन… दुबारा पैसा-पैसा मत करना |
(सेठ ने रवि से कहा)

सेठ जी,बाकी के पैसे कब मिलेंगे,…
(रवि ने कहा..)

बोला ना – चल निकल,…तू इधर आ तो बताता हूं | बहुत ज्यादा बोलता है तू |
(सेठ ने दबंगई दिखाते हुए कहा..)

फिर सेठ जी,धीरे से प्यार से – अगले शनिवार को आकर ले लेना |

रवि,मनीष सेठ की घुड़की भरा, प्यार को समझ नहीं पाया और,धीरे से फिर घर को निकल लिया |
मेडिकल से दवाई की पुड़िया और कुछ खाने की सामग्री लेकर घर पहुंचा |
रवि सीधे पलंग पर बीमार पापा को प्रणाम करके दवा पास ही टेबल पर रख कर सीधे रसोई की ओर आवाज सुनकर पैर चल पड़ते हैं,रसोई पर पता चलता है कि मां खेत निंदाई करने गई हैं, संध्या खाना पका रही है | रवि ने सामान को रसोई में रखकर बाहर आकर बैठक में बैठ गया |
गरीबी के बुरेे दिन,दिहाड़ी करके रवि और मम्मी घर चला रहे हैं | चाचा और अन्य रिश्तेदार भी रवि के परिवार की कोई सुध नहीं ले रहे | बेचारी संध्या स्कूल के दिनों में स्कूल जाती और छुट्टी के दिन पहुंच जाती रवि के घर काम में हाथ बटाने के लिए | रवि खुद छुट्टी के दिन दिहाड़ी करके दो पायली धान मजदूरी लेकर लाकर शाम को कुट पीसकर जीवन यापन करते थे | कई बार तो स्कूल छोड़कर भी मजदूरी करने की नौबत आई | संध्या को भी रवि से धीरे धीरे लगाव सा होने लगा,रवि इन सब बातों से अनभिज्ञ है,संध्या ने ठान लिया कि तुम मेरे हो,धीरे-धीरे जिन्दगी कटती गई और रवि ने मेहनत और लगन से मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण कर ली | और आगे की पढ़ाई करने के लिए रामपुर जाने की सोची,गरीबी के दौर में सायकिल नहीं था, मां 434 रूपये और रवि की मजदूरी से 660 रूपये जमा कर लिये पर सायकिल खरीदने के लिए पैसे कम थे,इधर संध्या ने अपने गांव की स्वसहायता समूह के सदस्यों के साथ सम्मिलित होकर काम करके कुछ पैसे बनाकर रवि की मदद के लिए 700 रूपये लाकर दिये,जिसमें से रवि ने शहर जाकर एक सायकिल 1734 रूपये मे खरीदी और बचे रूपयों से कुछ दवा और संध्या के लिए दो कंगन खरीदा |
नये सायकिल लेकर रवि घर पहुंचा खुशी मां की आखों से छलक रहे थे | और जब कंगन देने रसोई पर जैसे ही रवि पहुंचा तो संध्या रसोई पर नहीं मिली | मां से पता चला कि संध्या को कहीं से रिश्ता आने वाला है,जिससे उसकी भाई अनिल आकर ले गया |
रवि रोज सामान लाकर रसोई में जहां पर रखता था,ठीक वहीं पर एक चिट्ठी रखी थी,पर वो चिट्टी संध्या की नहीं थी बल्कि संध्या को किसी रोशन नाम के लड़के ने लिखा था जिसे संध्या के भाई अनिल ने लाकर दिया था,चिट्टी संध्या ने पढ़ी भी नहीं थी बंद थी चिट्ठी |

रवि की धड़कने तेज हो गई, सोंचा मेरे परिवार के लिए इतना त्याग सेवा करने के बाद भी मैं कभी संध्या की भावनाओं को समझ नहीं पाया | रवि एक नेकदिल लड़का है,उसे परिवार की जिम्मेदारी और भविष्य की चिन्ता ने प्यार लगाव और इच्छाएं इन सभी के आसपास भटकने भी नहीं दिया | चिट्ठी खोला देखकर चकित हो गया कि रोशन वही लड़का था,जिसके लिये संध्या के पास रिश्ता आने वाला है | रोशन एक नंबर का ढोंगी और अय्याश किस्म का लड़का था,उसके कितने किस्से कहानियां थे | रवि की आंखों से आंसू की धार बहने लगे कंगन हाथ में लेकर चूम-चूम कर,फूट-फूट कर रोने लगा,आज रवि ने ठान लिया चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा अपने आप से- संध्या तुम मेरे हो | तुम दूसरे की हो नहीं सकती | रो-रो बुरा हाल हो और पता नहीं कब आंख लग गई फिर पता नहीं चला |
संध्या जिम्मेदार लड़की थी, घर से कोई बहाना कर तड़के सुबह-सुबह संध्या पहुंच गयी | मां ने पूछा कि इतनी जल्दी कैसे आ गई सब ठीक तो है ना | तो संध्या ने मां को यह कह दिया कि रिश्ता वाले नहीं आये तो आ गई और यहां पापा जी को दवा भी तो देनी थी आप और रवि काम पर जाने वाली हैं |
मां से पता चला कि रवि सोया है,बिना कुछ खाये | संध्या रवि के कमरे में दाखिल हुई कि देखती है कि कंगन पड़ी हैं,सीने के पास और रवि रो रहा है,आंखें बंद हैं और धीरे-धीरे कह रहा है,संध्या तुम मेरे हो… संध्या तुम मेरे हो | संध्या रवि उठाते बोली हां रवि उठो मैं तुम्हारी ही हूं,तुम मेरे हो |
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*विश्वनाथ देवांगन”मुस्कुराता बस्तर*
कोंडागांव,बस्तर,छत्तीसगढ़

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