1992 की बात है। 18 साल की उम्र में NDA यानी नेशनल डिफेंस एकेडमी में भर्ती हुआ। तीन साल की ट्रेनिंग के दौरान ही एक ऐसा हादसा हुआ, जिसमें मेरी रीढ़ की हड्डी टूट गई। स्पाइन इंजरी हो गई।2 साल तक हॉस्पिटल में एडमिट रहा। नर्वस सिस्टम ने काम करना बंद कर दिया। चेहरा छोड़कर बॉडी का कोई भी हिस्सा नहीं हिलता था। यहां तक कि मैं चेहरे पर उड़ रही मक्खी को भी नहीं उड़ा सकता था।
मेरे साथ के लोग ट्रेनिंग खत्म होने के बाद ऑफिसर बन गए। उन्हें जूनियर्स सैल्यूट मारते थे। मैं इधर बेड पर पड़ा रहता। क्या कर सकता था… पहली सैलरी मिलती, उससे पहले ही ये हादसा हो गया।चाहता तो सेना में अपाहिज बनकर भी रह सकता था, लेकिन मेरा मानना था कि जब मैं फाइट नहीं कर सकता हूं, दुश्मनों से लड़ नहीं सकता हूं, फिर सेना में रहने का क्या मतलब। मैं उस वक्त जिंदगी से फाइट कर रहा था। बस यह चाह रहा था कि शरीर साथ देना शुरू कर दे, लेकिन…।’
दिल्ली से करीब 100 किलोमीटर दूर, हरियाणा का झज्जर इलाका। जहां तक नजरें जा रही हैं, सिर्फ ईंट की भट्ठी दिखाई दे रही है। बंजर खेतों के बीच कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक आश्रम दिखाई देता है, जिसका नाम है ‘कर्मयोगिनी’।नवीन गुलिया से यही मुलाकात हुई, वो 2007 से ‘कर्मयोगिनी’ नाम से संस्था चलाते हैं, जहां असहाय बच्चों को पढ़ाते हैं। उनकी परवरिश करते हैं।
बातचीत के दौरान कई बार नवीन गुलिया के दोनों पैर व्हीलचेयर पर ऐसे तड़पने लगते हैं, जैसे कि दोनों पैर का शरीर से कोई वास्ता ही न हो। जब बगल में बैठे कुछ बच्चे इनके दोनों पैर को व्हीलचेयर के पायदान पर स्टेबल करने की कोशिश करते हैं, तो नवीन तंज मारते हुए कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि दोनों पैर शरीर से अलग हैं। इनका अपना दिमाग चलता है।
देख रहे हैं न ! कैसे खुद ब खुद तड़पने लगते हैं। बड़ी दिक्कत होती है। असहनीय दर्द होने लगता है, लेकिन अब इस दर्द की मुझे आदत पड़ चुकी है।’नवीन के तड़पते पैर को उनकी संस्था में रहने वाली एक लड़की स्टेबल करने की कोशिश कर रही है।नवीन भले ही दिव्यांग हैं, लेकिन वो खुद को ऐसा नहीं मानते हैं।
बातचीत के दौरान शुरुआत में मैं जब इस शब्द का इस्तेमाल करता हूं, तो वे थोड़े असहज हो जाते हैं। कहते हैं, ‘कोई व्यक्ति विकलांग दिमाग से होता है, शरीर से नहीं। मैं भी आप जैसा ही महसूस करता हूं। खुद को सामान्य देखता हूं।ऐसा न होता, तो मैं इतना कुछ हासिल नहीं करता। हालांकि मैं इसे उपलब्धि भी नहीं मानता हूं। कौन-सा मैंने ऐसा कुछ करके किसी पर एहसान कर दिया। जो भी किया अपनी खुशी के लिए किया।
मेरी उम्र 50 वर्ष है और शरीर पर आपको 50 जगह घाव के निशान दिख जाएंगे। चेहरे पर ही अकेले 10 निशान हैं।मैंने 18632 फीट ऊंचे और खतरनाक दर्रे मार्सिमिक ला की चढ़ाई की थी, तो बिना रुके पहुंचने वाला पहला इंसान बना था। आप चेक कर सकते हैं कि यह लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज है।’
नवीन के चेहरे पर एक आत्मविश्वास दिख रहा है। बताते हैं, ‘मैं किसी भी एडवेंचर स्पोर्ट्स में ओपन कैटेगरी में पार्टिसिपेट करता हूं। मतलब मैं दिव्यांग कैटेगरी में हिस्सा नहीं लेता हूं।2005 में दिल्ली से मोटरेबल माउंटेन पास ‘मार्सिमिक ला’ के टॉप तक का सफर करने मैं कार से निकला था। दिल्ली से लद्दाख के ‘मार्सिमिक ला’ तक 1110 किमी की दूरी 55 घंटे में पूरी की। आप जानते हैं कि तिब्बती में ‘मार्सिमिक’ का मतलब मौत का जाल होता है।
नवीन पुराने दिनों की तरफ लौटते हैं।
बताते हैं, ‘मेरे पापा सेना में थे। पापा जहां रहते, हम लोग भी उनके साथ रहते थे। मेरा बचपन से सेना में जाने का सपना था, लेकिन स्कूल के दिनों में मेरी कद-काठी को लेकर हमेशा मजाक उड़ता था। दोस्त चिढ़ाते थे कि अरे तुम तो नाटे हो, दुबले-पतले हो। ठीक से दौड़ भी नहीं पाते हो।
मैं अंदर से बहुत कमजोर महसूस करता था। बड़ा हुआ, तो सेना में जाने की तैयारी करने लगा। लगन ऐसी कि 18 साल की उम्र होते-होते NDA में शामिल हो गया। ट्रेनिंग के आखिरी साल आते-आते एक एक्टिविटी के दौरान मेरी रीढ़ की हड्डी टूट गई और फिर सब कुछ खत्म…इस घटना से पहले भी हॉर्स राइडिंग के दौरान मेरी एक आंख के पास गहरी चोट लग गई थी। जिसके बाद सर्जरी करवानी पड़ी। मैं कई महीने हॉस्पिटल में एडमिट रहा।’
बातचीत के बीच 14 साल की अंजली व्हीलचेयर चलाती हुई आती है। अंजली का एक पैर कटा हुए है। पूछने पर पता चलता है कि उसे बोन कैंसर है। वो इसी संस्था में रहकर पढ़ाई-लिखाई करती है। उसका इलाज भी यहीं पर चल रहा है।नवीन अंजलि के बारे में बताते हैं, ‘करीब डेढ साल पहले ये बच्ची यहां आई थी। अभी कुछ महीने पहले ही इसकी चौथी सर्जरी हुई है। मम्मी-पापा उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में रहते हैं। आर्थिक तंगी ऐसी है कि न तो वो इसके बोन कैंसर का इलाज करवा सकते हैं और न पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं।
नवीन गुलिया के साथ अंजलि और बाकी बच्चे। अंजलि को बोन कैंसर है।नवीन कहते हैं, ‘जिन बच्चों को आप यहां देख रहे हैं, अधिकांश असहाय बच्चे ही हैं। आस-पास ईंट की भट्ठियां बहुत ज्यादा हैं। यहां माइग्रेट वर्कर्स रहते हैं। इनके बच्चे पहले नहीं पढ़ते-लिखते थे। आज अधिकतर बच्चे यहां पढ़ने के लिए आते हैं।
एक लड़का मेरे पास तीसरी क्लास में आया था। सन्नी नाम है उसका। जन्म से ही उसका एक हाथ और एक पैर नहीं था, लेकिन वो पढ़ने में बहुत तेज था। जब वो इस संस्था में आया, तो मैंने उसकी सारी जरूरतों को पूरा किया। हालांकि मैं कोई क्रेडिट नहीं लेना चाहता हूं, क्योंकि सब कुछ उसी ने किया। आज वो दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज से मास्टर करने के बाद UPSC की तैयारी कर रहा है।
कुछ ऐसे भी बच्चे हैं, जो पहले ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगते थे। अब वो यहां रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। ‘कर्मयोगिनी’ बन रहे हैं। यहां लड़का हो या लड़की, हर किसी का रहने का तौर तरीका एक सा मिलेगा। सभी बच्चे बॉक्सिंग की भी प्रैक्टिस करते हैं।’
नवीन मुझे दूसरे कमरे में लेकर चलते हैं, जहां कुछ बच्चे आराम कर रहे हैं। अभी दोपहर के दो बज रहे हैं। वो कहते हैं, ‘सोशल वर्क की शुरुआत करने से पहले मैं अपना पेट पालने के लिए छोटा-मोटा काम करता था।
मुझे याद है, जब मैं 2 साल हॉस्पिटल में एडमिट रहने के बाद डिस्चार्ज होकर घर आया, तो फाइनेंशियल स्थिति खराब हो चुकी थी। मैं कोई काम भी नहीं कर सकता था। और तो और, कोई मुझे काम भी नहीं देना चाहता था। लोगों को लगता था कि मैं फिजिकली चैलेंज्ड होकर क्या कर पाऊंगा।बड़ी मशक्कत के बाद एक होटल में रिसेप्शनिस्ट की जॉब मिली। कुछ साल तक मैंने ये काम किया फिर सेल्स का। इसी दौरान मैंने पुणे से मैनेजमेंट की पढ़ाई भी की।’
नवीन एक किस्सा बताते हैं। कहते हैं, ‘2004-05 की बात है। दिल्ली की सर्द रात थी। एक ट्रैफिक सिग्नल पर मैं रुका था।सामने देखा कि एक व्यक्ति एक छोटी सी बच्ची को बिना कपड़ों के सड़क पर भीख मांगने के लिए अकेले छोड़ रहा है। वो बच्ची ठंड से ठिठुर रही थी और वो आदमी कोट पैंट पहने हुआ था। मैं अंदर से हिल गया इस सीन को देखकर। उस दिन से पहले मुझे भीख मंगवाने वाली गैंग के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी।
उस दिन मुझे अहसास हुआ कि कार का ग्लास चढ़ा लेने से, पांच रुपए दे देने से इन बच्चियों की जिंदगी नहीं बदल जाएगी। मैं यह भी जानता था कि मेरे अकेले चाहने से कोई बदलाव नहीं आ सकता।धीरे-धीरे मैंने इन बच्चियों का रेस्क्यू करना शुरू किया। एक बार तो मुझ पर जानलेवा हमला हो गया। इस गैंग के लोगों ने मुझ पर अटैक कर दिया।
2007 से मैंने इस तरह की बच्चियों को अपनी संस्था में रखना, उन्हें पढ़ाना-लिखाना शुरू कर दिया। आज मेरी संस्था के जरिए हजारों बच्चे पढ़ रहे हैं। कई बच्चे तो IAS, IPS की तैयारी कर रहे हैं। कुछ लड़कियां पुलिस में भर्ती हो चुकी हैं।’
नवीन एक और किस्सा बताते हैं। वो कहते हैं, ‘पास के ही एक गांव में एक परिवार के व्यक्ति ने किसी का मर्डर कर दिया था। जब पुलिस की रेड पड़नी शुरू हुई, तो वो घर से फरार हो गया। गांव वालों ने उस व्यक्ति की पत्नी को जेल में डलवा दिया। अब घर में दो बेटियां अकेली थीं।अब बताइए, इन बच्चियों की क्या गलती थी। गांव वाले परेशान करने लगे। मैंने उन्हें फाइनेंशियल सपोर्ट किया। उनकी परवरिश की। आज वो दोनों लड़कियां पुलिस में हैं। अब तक मैंने हजारों बच्चों का भविष्य संवारा है।’
बातचीत करते-करते शाम हो जाती है। नवीन इस दौरान काफी थक चुके हैं। कई बार वो लड़खड़ाते हैं। संभलते हुए घूंट-घूंट पानी पीना शुरू करते हैं। कहते हैं, ‘मैं एक बार में पानी नहीं पी पाता हूं। शरीर से पसीना नहीं निकलता है, इसलिए लगातार पानी पीते रहना होता है।’