सत्यदर्शन साहित्य…पं० श्रीराम शर्मा द्वारा रचित ‘स्मृति’ एक संस्मरणात्मक लेख है…जिसमें लेखक ने अपने बचपन की रोमांचकारी घटना का वर्णन किया है।

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पं० श्रीराम शर्मा द्वारा रचित लेख ‘स्मृति’ एक संस्मरणात्मक लेख है, जो साहसिक एवं शिकार कथा पर आधारित है। यह पं० श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित ‘शिकार’ नामक पुस्तक से संकलित है जिसमें लेखक ने अपने बचपन की रोमांचकारी घटना का वर्णन किया है।

सन् 1908 ई . की बात है । दिसंबर का आखीर या जनवरी का प्रारंभ होगा । चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था । दो – चार दिन पूर्व कुछ बूंदा – बाँदी हो गई थी , इसलिए शीत की भयंकरता और भी बढ़ गई थी । सायंकाल के साढ़े तीन या चार बजे होंगे । कई साथियों के साथ मैं झरबेरी के बेर तोड़ – तोड़कर खा रहा था कि गाँव के पास से एक आदमी ने ज़ोर से पुकारा कि तुम्हारे भाई बुला रहे हैं , शीघ्र ही घर लौट जाओ । मैं घर को चलने लगा । साथ में छोटा भाई भी था । भाई साहब की मार का डर था इसलिए सहमा हुआ चला जाता था । समझ में नहीं आता था कि कौन – सा कसूर बन पड़ा । डरते – डरते घर में घुसा । आशंका थी कि बेर खाने के अपराध में ही तो पेशी न हो । पर आँगन में भाई साहब को पत्र लिखते पाया । अब पिटने का भय दूर हुआ । हमें देखकर भाई साहब ने कहा – “ इन पत्रों को ले जाकर मक्खनपुर डाकखाने में डाल आओ । तेज़ी से जाना , जिससे शाम की डाक में चिट्ठियाँ निकल जाएँ । ये बड़ी ज़रूरी हैं । ” जाड़े के दिन थे ही , तिस पर हवा के प्रकोप से कँप – कँपी लग रही थी । हवा मज्जा ‘ तक ठिठुरा रही थी , इसलिए हमने कानों को धोती से बाँधा । माँ ने भुंजाने ‘ के लिए थोड़े चने एक धोती में बाँध दिए । हम दोनों भाई अपना – अपना डंडा लेकर घर से निकल पड़े । उस समय उस बबूल के डंडे से जितना मोह था , उतना इस उमर में रायफल से नहीं । मेरा डंडा अनेक साँपों के लिए नारायण – वाहन हो चुका

था । मक्खनपुर के स्कूल और गाँव के बीच पड़ने वाले आम के पेड़ों से प्रतिवर्ष उससे आम झुरे । जाते थे । इस कारण वह मूक डंडा सजीव – सा प्रतीत होता था । प्रसन्नवदन – हम दोनों मक्खनपुर की ओर तेजी से बढ़ने लगे । चिट्ठियों को मैंने टोपी में रख लिया , क्योंकि कुर्ते में जेबें न थीं । हम दोनों उछलते – कूदते , एक ही साँस में गाँव से चार फलांग दूर उस कुएँ के पास आ गए जिसमें एक अति भयंकर काला साँप पड़ा हुआ था । कुआँ कच्चा था , और चौबीस हाथ गहरा था । उसमें पानी न था । उसमें न जाने साँप कैसे गिर गया था ? कारण कुछ भी हो , हमारा उसके कुएँ में होने का ज्ञान केवल दो महीने का था । बच्चे नटखट होते ही हैं । मक्खनपुर पढ़ने जाने वाली हमारी टोली पूरी बानर टोली थी । एक दिन हम लोग स्कूल से लौट रहे थे कि हमको कुएँ में उझकने की सूझी । सबसे पहले उझकने वाला मैं ही था । कुएँ में झाँककर एक ढेला फेंका कि उसकी आवाज़ कैसी होती है । उसके सुनने के बाद अपनी बोली की प्रतिध्वनि सुनने की इच्छा थी , पर कुएँ में ज्योंही ढेला गिरा , त्योंही एक फुसकार सुनाई पड़ी । कुएँ के किनारे खड़े हुए हम सब बालक पहले तो उस फुसकार से ऐसे चकित हो गए जैसे किलोलें करता हुआ मृगसमूह अति समीप के कुत्ते की भौंक से चकित हो जाता है । उसके उपरांत सभी ने उछल – उछलकर एक – एक ढेला फेंका और कुएँ से आने वाली क्रोधपूर्ण फुसकार पर कहकहे लगाए । गाँव से मक्खनपुर जाते और मक्खनपुर से लौटते समय प्रायः प्रतिदिन ही कुएँ में ढेले डाले जाते थे । मैं तो आगे भागकर आ जाता था और टोपी को एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ से ढेला फेंकता था । यह रोजाना की आदत – सी हो गई थी । साँप से फुसकार करवा लेना मैं उस समय बड़ा काम समझता था । इसलिए जैसे ही हम दोनों उस कुएँ की ओर से निकले , कुएँ में ढेला फेंककर फुसकार सुनने की प्रवृत्ति जाग्रत हो गई । मैं कएँ की ओर बढा । छोटा भाई मेरे पीछे ऐसे हो लिया जैसे बड़े
मृगशावक के पीछे छोटा मृगशावक हो लेता है । कुएँ के किनारे से एक ढेला उठाया और उछलकर एक हाथ से टोपी उतारते हुए साँप पर ढेला गिरा दिया , पर मुझ पर तो बिजली – सी गिर पड़ी । साँप ने फुसकार मारी या नहीं , ढेला उसे लगा या नहीं यह बात अब तक स्मरण नहीं । टोपी के हाथ में लेते ही तीनों चिट्ठियाँ चक्कर काटती हुई कुएँ में गिर रही थीं । अकस्मात् जैसे घास चरते हुए हिरन की आत्मा गोली से हत होने पर निकल जाती है और वह तड़पता रह जाता है , उसी भाँति वे चिट्टियाँ क्या टोपी से निकल गईं . मेरी तो जान निकल गई । उनके गिरते ही मैंने उनको पकड़ने के लिए एक झपट्टा भी मारा ; ठीक वैसे जैसे घायल शेर शिकारी को पेड़ पर चढ़ते देख उस पर हमला करता है । पर वे तो पहुँच से बाहर हो चुकी थीं । उनको पकड़ने की घबराहट में मैं स्वयं झटके के कारण कुएँ में गिर गया होता । कुएँ की पाट पर बैठे हम रो रहे थे – छोटा भाई ढाढ़े मारकर और मैं चुपचाप आँखें डबडबाकर । पतीली में उफ़ान आने से ढकना ऊपर उठ जाता है और पानी बाहर टपक जाता है । निराशा , पिटने के भय और उद्वेग से रोने का उफ़ान आता था । पलकों के ढकने भीतरी भावों को रोकने का प्रयत्न करते थे , पर कपोलों पर आँसू ढुलक ही जाते थे । माँ की गोद की याद आती थी । जी चाहता था कि माँ आकर छाती से लगा ले और लाड़ – प्यार करके कह दे कि कोई बात नहीं , चिट्ठियाँ फिर लिख ली जाएँगी । तबीयत करती थी कि कुएँ में बहुत – सी मिट्टी डाल दी जाए और घर जाकर कह दिया जाए कि चिट्ठी डाल आए , पर उस समय मैं झूठ बोलना जानता ही न था । घर लौटकर सच बोलने पर रुई की तरह धनाई होती । मार के खयाल से शरीर ही नहीं मन भी काँप जाता था । सच बोलकर पिटने के भावी भय और झूठ बोलकर चिट्ठियों के न पहुँचने की ज़िम्मेदारी के बोझ से दबा मैं बैठा सिसक रहा था । इसी सोच – विचार में पंद्रह मिनट होने को आए । देर हो रही थी , और उधर दिन का बुढ़ापा बढ़ता जाता था । कहीं भाग जाने को तबीयत करती थी , पर पिटने का भय और जिम्मेदारी की दुधारी तलवार कलेजे पर फिर रही थी ।

दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियाँ कट जाती हैं । मेरी दुविधा भी दूर हो गई । कुएँ में घुसकर चिट्ठियों को निकालने का निश्चय किया । कितना भयंकर निर्णय था ! पर जो मरने को तैयार हो , उसे क्या ? मूर्खता अथवा बुद्धिमत्ता से किसी काम को करने के लिए कोई मौत का मार्ग ही स्वीकार कर ले , और वह भी जानबूझकर , तो फिर वह अकेला संसार से भिड़ने को तैयार हो जाता है । और फल ? उसे फल की क्या चिंता । फल तो किसी दूसरी शक्ति पर निर्भर है । उस समय चिट्ठियाँ निकालने के लिए मैं विषधर से भिड़ने को तैयार हो गया । पासा फेंक दिया था । मौत का आलिंगन हो अथवा साँप से बचकर दूसरा जन्म – इसकी कोई चिंता न थी । पर विश्वास यह था कि डंडे से साँप को पहले मार दूंगा , तब फिर चिट्ठियाँ उठा लूँगा । बस इसी दृढ़ विश्वास के बूते पर मैंने कुएँ में घुसने की ठानी । _ _ छोटा भाई रोता था और उसके रोने का तात्पर्य था कि मेरी मौत मुझे नीचे बुला रही है , यद्यपि वह शब्दों से न कहता था । वास्तव में मौत सजीव और नग्न रूप में कुएँ में बैठी थी , पर उस नग्न मौत से मुठभेड़ के लिए मुझे भी नग्न होना पड़ा । छोटा भाई भी नंगा हुआ । एक धोती मेरी , एक छोटे भाई की , एक चनेवाली , दो कानों से बँधी हुई धोतियाँ – पाँच धोतियाँ और कुछ रस्सी मिलाकर कुएँ की गहराई के लिए काफ़ी हुईं । हम लोगों ने धोतियाँ एक – दूसरी से बाँधी और खूब खींच – खींचकर आज़मा लिया कि गाँठे कड़ी हैं या नहीं । अपनी ओर से कोई धोखे का काम न रखा । धोती के एक सिरे पर डंडा बाँधा और उसे कुएँ में डाल दिया । दूसरे सिरे को डेंग ( वह लकड़ी जिस पर चरस – पुर टिकता है ) के चारों ओर एक चक्कर देकर और एक गाँठ लगाकर छोटे भाई को दे दिया । छोटा भाई केवल आठ वर्ष का था , इसीलिए धोती को डेंग से कड़ी करके बाँध दिया और तब उसे खूब मज़बूती से पकड़ने के लिए कहा । मैं कुएँ में धोती के सहारे घुसने लगा । छोटा भाई रोने लगा । मैंने उसे आश्वासन ‘ दिलाया कि मैं कुएँ के नीचे पहुँचते ही साँप को मार दूंगा और मेरा विश्वास भी ऐसा ही था । कारण यह था कि इससे पहले मैंने अनेक साँप मारे
थे । इसलिए कुएँ में घुसते समय मुझे साँप का तनिक भी भय न था । उसको मारना मैं बाएँ हाथ का खेल समझता था । कुएँ के धरातल से जब चार – पाँच गज़ रहा हूँगा , तब ध्यान से नीचे को देखा । अक्ल चकरा गई । साँप फन फैलाए धरातल से एक हाथ ऊपर उठा हुआ लहरा रहा था । पूँछ और पूँछ के समीप का भाग पृथ्वी पर था , आधा अग्र भाग ऊपर उठा हुआ मेरी प्रतीक्षा कर रहा था । नीचे डंडा बँधा था , मेरे उतरने की गति से जो इधर – उधर हिलता था । उसी के कारण शायद मझे उतरते देख साँप घातक चोट के आसन पर बैठा था । सँपेरा जैसे बीन बजाकर काले साँप को खिलाता है और साँप क्रोधित हो फन फैलाकर खड़ा होता और पुँकार मारकर चोट करता है , ठीक उसी प्रकार साँप तैयार था । उसका प्रतिद्वंद्वी – मैं – उससे कुछ हाथ ऊपर धोती पकड़े लटक रहा था । धोती डेंग से बँधी होने के कारण कुएँ के बीचोंबीच लटक रही थी और मुझे कुएँ के धरातल की परिधि के बीचोंबीच ही उतरना था । इसके माने थे साँप से डेढ़ – दो फुट – गज़ नहीं – की दूरी पर पैर रखना , और इतनी दूरी पर साँप पैर रखते ही चोट करता । स्मरण रहे , कच्चे कुएँ का व्यास बहुत कम होता है । नीचे तो वह डेढ़ गज़ से अधिक होता ही नहीं । ऐसी दशा में कुएँ में मैं साँप से अधिक – से – अधिक चार फुट की दूरी पर रह सकता था , वह भी उस दशा में जब साँप मुझसे दूर रहने का प्रयत्न करता , पर उतरना तो था कुएँ के बीच में , क्योंकि मेरा साधन बीचोंबीच लटक रहा था । ऊपर से लटककर तो साँप नहीं मारा जा सकता था । उतरना तो था ही । थकावट से ऊपर चढ़ भी नहीं सकता था । अब तक अपने प्रतिद्वंद्वी को पीठ दिखाने का निश्चय नहीं किया था । यदि ऐसा करता भी तो कुएँ के धरातल पर उतरे बिना क्या मैं ऊपर चढ़ सकता था – धीरे – धीरे उतरने लगा । एक – एक इंच ज्यों – ज्यों मैं नीचे उतरता जाता था , त्यों – त्यों मेरी एकाग्रचित्तता बढ़ती जाती थी । मुझे एक सूझ सूझी । दोनों हाथों से धोती पकड़े हुए मैंने अपने पैर कुएँ की बगल में लगा दिए । दीवार से पैर लगाते ही कुछ मिट्टी
नीचे गिरी और साँप ने फू करके उस पर मुँह मारा । मेरे पैर भी दीवार से हट गए , और मेरी टाँगें कमर से समकोण बनाती हुई लटकती रहीं , पर इससे साँप से दूरी और कुएँ की परिधि पर उतरने का ढंग मालूम हो गया । तनिक झूलकर मैंने अपने पैर कुएँ की बगल से सटाए , और कुछ धक्के के साथ अपने प्रतिद्वंद्वी के सम्मुख कुएँ की दूसरी ओर डेढ़ गज़ पर – कुएँ के धरातल पर खड़ा हो गया । आँखें चार हुईं । शायद एक – दूसरे को पहचाना । साँप को चक्षुःश्रवा ‘ कहते हैं । मैं स्वयं चक्ष : श्रवा हो रहा था । अन्य इंद्रियों ने मानो सहानभति से अपनी शक्ति आँखों को दे दी हो । साँप के फन की ओर मेरी आँखें लगी हुई थीं कि वह कब किस ओर को आक्रमण करता है । साँप ने मोहनी – सी डाल दी थी । शायद वह मेरे आक्रमण की प्रतीक्षा में था , पर जिस विचार और आशा को लेकर मैंने कुएँ में घुसने की ठानी थी , वह तो आकाश – कुसुम था । मनुष्य का अनुमान और भावी योजनाएँ कभी – कभी कितनी मिथ्या और उलटी निकलती हैं । मुझे साँप का साक्षात् होते ही अपनी योजना और आशा की असंभवता प्रतीत हो गई । डंडा चलाने के लिए स्थान ही न था । लाठी या डंडा चलाने के लिए काफ़ी स्थान चाहिए जिसमें वे घुमाए जा सकें । साँप को डंडे से दबाया जा सकता था , पर ऐसा करना मानो तोप के मुहरे पर खड़ा होना था । यदि फन या उसके समीप का भाग न दबा , तो फिर वह पलटकर ज़रूर काटता , और फन के पास दबाने की कोई संभावना भी होती तो फिर उसके पास पड़ी हुई दो चिट्ठियों को कैसे उठाता ? दो चिट्ठियाँ उसके पास उससे सटी हुई पड़ी थीं और एक मेरी ओर थी । मैं तो चिट्ठियाँ लेने ही उतरा था । हम दोनों अपने पैंतरों पर डटे थे । उस आसन पर खड़े – खड़े मुझे चार – पाँच मिनट हो गए । दोनों ओर से मोरचे पड़े हुए थे , पर मेरा मोरचा कमजोर था । कहीं साँप मुझ पर झपट पड़ता तो मैं – यदि बहुत करता तो – उसे पकड़कर , कुचलकर मार देता , पर वह तो अचूक ‘ तरल विष मेरे शरीर में पहुँचा ही देता और अपने साथ – साथ मुझे भी ले जाता । अब तक साँप ने वार न किया था , इसलिए मैंने भी
उसे डंडे से दबाने का खयाल छोड़ दिया । ऐसा करना उचित भी न था । अब प्रश्न था कि चिट्ठियाँ कैसे उठाई जाएँ । बस , एक सूरत थी । डंडे से साँप की ओर से चिट्ठियों को सरकाया जाए । यदि साँप टूट पड़ा , तो कोई चारा न था । कुर्ता था , और कोई कपड़ा न था जिससे साँप के मुँह की ओर करके उसके फन को पकड़ लूँ । मारना या बिलकुल छेड़खानी न करना – ये दो मार्ग थे । सो पहला मेरी शक्ति के बाहर था । बाध्य होकर दूसरे मार्ग का अवलंबन ‘ करना पड़ा । डंडे को लेकर ज्यों ही मैंने साँप की दाईं ओर पड़ी चिट्ठी की ओर उसे बढ़ाया कि साँप का फन पीछे की ओर हुआ । धीरे – धीरे डंडा चिट्ठी की ओर बढ़ा और ज्योंही चिट्ठी के पास पहुँचा कि फैंकार के साथ काली बिजली तड़पी और डंडे पर गिरी । हृदय में कंप हुआ , और हाथों ने आज्ञा न मानी । डंडा छूट पड़ा । मैं तो न मालूम कितना ऊपर उछल गया । जान – बूझकर नहीं , यों ही बिदककर । उछलकर जो खड़ा हुआ , तो देखा डंडे के सिर पर तीन – चार स्थानों पर पीव – सा कुछ लगा हुआ है । वह विष था । साँप ने मानो अपनी शक्ति का सर्टीफिकेट सामने रख दिया था , पर मैं तो उसकी योग्यता का पहले ही से कायल था । उस सर्टीफिकेट की ज़रूरत न थी । साँप ने लगातार फँ – करके डंडे पर तीन – चार चोटें की । वह डंडा पहली बार इस भाँति अपमानित हुआ था , या शायद वह साँप का उपहास कर रहा था । उधर ऊपर पूँ – कूँ और मेरे उछलने और फिर वहीं धमाके से खड़े होने से छोटे भाई ने समझा कि मेरा कार्य समाप्त हो गया और बंधुत्व का नाता पूँ – पूँ और धमाके में टूट गया । उसने खयाल किया कि साँप के काटने से मैं गिर गया । मेरे कष्ट और विरह के खयाल से उसके कोमल हृदय को धक्का लगा । भ्रातृ – स्नेह के ताने – बाने को चोट लगी । उसकी चीख निकल गई । छोटे भाई की आशंका बेजा न थी , पर उस और धमाके से मेरा साहस कुछ बढ़ गया । दुबारा फिर उसी प्रकार लिफ़ाफ़े को उठाने की चेष्टा की । अबकी बार साँप ने वार भी किया और डंडे से चिपट भी गया । डंडा हाथ से छूटा तो नहीं पर
झिझक , सहम अथवा आतंक से अपनी ओर को खिंच गया और गंजल्का मारता हुआ साँप का पिछला भाग मेरे हाथों से छू गया । उफ़ , कितना ठंडा था ! डंडे को मैंने एक ओर पटक दिया । यदि कहीं उसका दूसरा वार पहले होता , तो उछलकर मैं साँप पर गिरता और न बचता , लेकिन जब जीवन होता है , तब हज़ारों ढंग बचने के निकल आते हैं । वह दैवी कृपा थी । डंडे के मेरी ओर खिंच आने से मेरे और साँप के आसन बदल गए । मैंने तुरंत ही लिफ़ाफ़े और पोस्टकार्ड चुन लिए । चिट्ठियों को धोती के छोर में बाँध दिया , और छोटे भाई ने उन्हें ऊपर खींच लिया । डंडे को साँप के पास से उठाने में भी बड़ी कठिनाई पड़ी । साँप उससे खुलकर उस पर धरना देकर बैठा था । जीत तो मेरी हो चुकी थी , पर अपना निशान गँवा चुका था । आगे हाथ बढ़ाता तो साँप हाथ पर वार करता , इसलिए कुएँ की बगल से एक मुट्ठी मिट्टी लेकर मैंने उसकी दाईं ओर फेंकी कि वह उस पर झपटा , और मैंने दूसरे हाथ से उसकी बाईं ओर से डंडा खींच लिया , पर बात – की – बात में उसने दूसरी ओर भी वार किया । यदि बीच में डंडा न होता , तो पैर में उसके दाँत गड़ गए होते । अब ऊपर चढना कोई कठिन काम न था । केवल हाथों के सहारे . पैरों को बिना कहीं लगाए हुए 36 फुट ऊपर चढ़ना मुझसे अब नहीं हो सकता । 15 – 20 फुट बिना पैरों के सहारे , केवल हाथों के बल , चढ़ने की हिम्मत रखता हूँ ; कम ही , अधिक नहीं । पर उस ग्यारह वर्ष की अवस्था में मैं 36 फुट चढ़ा । बाहें भर गई थीं । छाती फूल गई थी । धौंकनी चल रही थी । पर एक – एक इंच सरक – सरककर अपनी भुजाओं के बल मैं ऊपर चढ़ आया । यदि हाथ छूट जाते तो क्या होता इसका अनुमान करना कठिन है । ऊपर आकर , बेहाल होकर , थोड़ी देर तक पड़ा रहा । देह को झार – झूरकर धोती – कुर्ता पहना । फिर किशनपुर के लड़के को , जिसने ऊपर चढ़ने की चेष्टा को देखा था , ताकीद करके कि वह कुएँ वाली घटना किसी से न कहे , हम लोग आगे बढ़े ।
सन् 1915 में मैट्रीक्युलेशन पास करने के उपरांत यह घटना मैंने माँ को सुनाई । सजल नेत्रों से माँ ने मुझे अपनी गोद में ऐसे बिठा लिया जैसे चिडिया अपने बच्चों को डैने ‘ के नीचे छिपा लेती है । कितने अच्छे थे वे दिन ! उस समय रायफल न थी , डंडा था और डंडे का शिकार – कम – से – कम उस साँप का शिकार – रायफल के शिकार से कम रोचक और भयानक न था ।

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