सरगुजा संभाग में रहने वाले पंडो जनजाति के लोग होली का त्यौहार अनोखे तरीके से मनाते हैं। यहां पंडो जनजाति के लोग अपनी बस्ती में होलिका दहन की सुबह तीरंदाजी का प्रतियोगिता आयोजित करते हैं। होलिका दहन के दौरान वहां एक खंभे को गाड़कर खड़ा करते है, जो होलिका दहन में पूरी तरह जल जाती है। जहां पर खंभा गड़ा होता है, वहां उसका ठूंठ ही बचा होता है और लोग उसमें दो सौ मीटर से तीर चलाते हैं, जिसका सही निशाना लग जाता है, उसे गांव वाले एक महुआ का पेड़ सालभर के लिए देते हैं।
इसके बाद दूसरे साल जब प्रतियोगिता होती है, तो उस समय जो जीतता है, उसे दे दिया जाता है। इस अवधि में महुआ और डोरी को जीतने वाला ही बीनता है। ऐसा पंडो बाहुल्य हर गांव में होता है। वहीं होली के दिन होलिका दहन के बाद वहां जल रहे अंगारों को लेकर पंड़ो जनजाति के लोग अपने घरों में लेकर जाते हैं और चूल्हा में उसे डालकर आग जलाते हैं।
वे इस आग को सबसे पवित्र मानते हैं। उनका मानना है कि इससे उनके किचन और घर में बरकत आएगी। होली के दिन पंडो जनजाति के लोग घर-घर जाकर होली खेलते हैं, लेकिन इससे पहले अपने देवता की पूजा करते हैं और देवता को सबसे पहले रंग लगाते हैं। इसके बाद होली का रंग लगाने घर-घर जाते हैं, जहां अपनी स्थानीय बोली में गीत-दोहा गाते हैं।
खुद को महाभारत काल के पंडो का वंशज मानते हैं
सरगुजा संभाग के सरगुजा, बलरामपुर, सूरजपुर और कोरिया जिले में पंडो जनजाति के लोगों की करीब 30 हजार जनसंख्या है। वे खुद को महाभारत काल के पंडो का वंशज मानते हैं। पंडो जनजाति के लोग जंगल के किनारे बसना पसंद करते हैं और कंदमूल खाने में अब भी उपयोग करते हैं। सरकार ने इन्हें विशेष पिछड़ी जनजाति का दर्जा देकर रखा हुआ है।
अपनी भाषा में गाते हैं दोहा
पंडो समाज के अध्यक्ष उदय पंडो का कहना है कि होली त्यौहार में पंडो जनजाति के लोग अब भी अपने पारंपरिक रिवाज का पालन करते हैं। इस दिन वे अपनी भाषा में दोहा गाते हैं और घर-घर जाकर प्रेम प्रदर्शित करते हैं।