राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस विशेष…ग्राम पंचायत यदि सीढ़ी की पहली पायदान है तो उसका प्रबंधन भी मजबूत होना चाहिए…आज भी ग्राम पंचायतें सुविधाओं की बाट जोह रही हैं

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विश्वनाथ देवांगन…बस्तर संभाग में पंचायती राज की कल्पना एक सुखद एहसास है। जिसमें महिला सशक्तिकरण दिख रहा है। विभिन्न क्षेत्रों में अब महिलाएं भी अपनी लगातार उपस्थिति से समाज में नया प्रतिमान स्थापित कर रही हैं। चुनावी भागा दौड़ी में राजनेताओं और राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले लोग अपने नजदीकी रिश्तेदारों जैसे पत्नी,बहू,काकी,बेटी,मां आदि को चुनाव में खड़े करवाते हैं और पूरे पांच साल तक वो खुद सर्वेसर्वा बनकर राज करने की कोशिश करते हैं। किन्तु वर्तमान में अधिकांश महिलाओं में समझदारी के साथ ही जिम्मेदारी भी आई है जिससे सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। बस्तर में आज भी कुछेक पंचायतों में सरपंच प्रतिनिधि हावी हैं उनको लगता है कि हम ही सरपंच हैं। आज पेसा क्षेत्र होने के चलते और आम जन की जागरूकता से स्थिति अब बदलाव की ओर है। आज महिलाएं दहलीज के बाहर निकलकर अपने हक अधिकार के प्रति चिंतित और जागरूक होने की दिशा में अग्रसर होने लगी हैं।

ग्राम पंचायत में सभी पदों के लिए अनिवार्य न्यूनतम योग्यताएं निर्धारित होने की भी मांग उठती रही है। जिससे समाज में सकारात्मक परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है।

दुनिया के सबसे बड़े संसद वाले देश में ग्राम संसद(ग्राम सभा/ग्राम पंचायत) की महती भूमिका अग्रणी है। यहां कई राज्यों में महिलाओ के लिए 50 प्रतिशत तक आरक्षण दिया गया है। जो महिला सशक्तिकरण की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। आज गांव की महिलाएं स्व सहायता समूहों के माध्यम से ग्राम पंचायत में महती भूमिका निभा रही हैं साथ ही अपनी प्रबंधन क्षमता से युक्त हाथों को रोजगार में भी शामिल कर रही हैं जो अपनी रोजी रोटी का भी जुगाड़ कर रही हैं। आज ग्राम पंचायत में यह देखा जा रहा है कि पुरुषों के द्वारा दिए गये सवैंधानिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाते हुए सरपंचप्रतिनिधि द्वारा कार्य को अंजाम दिया जा रहा है। जो कि शासन प्रशासन में बैठे एवं समाज के कुछेक लोगों की पुरुष प्रधान सोंच की मानसिकता का परिचायक है। जब संविधान में अधिकार दिया गया है तो फिर महिलाओं के अधिकारों पर जबरन हस्तक्षेप क्यों? यह बड़ा सवाल आज भी है। विगत 15 वर्षों में यह देखने को मिला कि पहले महिलाएं अपने प्रतिनिधि के माध्यम से घर से राजनीति करती थी यानि सारा कार्य अपना प्रतिनिधि करता था। आज अधिकांश महिलाओं की स्थिति अच्छी हो रही है वो खुद पंचायतों में बैठकर सरकारी कामकाज को देख रही हैं। कहें तो अघोषित प्रतिनिधि प्रथा को हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है लेकिन कई महिलाओं में आज भी सामाजिक बदलाव के साथ साथ आत्मविश्वास की भी कमी है उनकी इच्छाशक्ति नहीं है कि वो स्वंय कोई निर्णय लें। उनके को अंतिम रूप देने के लिए या तो अपने पति/रिश्तेदार जिन्होंने उनको सरपंच की कुर्सी पर बिठाने में योगदान है से सलाह लेना उचित समझती हैं। और अक्सर ऐसा ही होता है कि कुर्सी पर कोई और बैठा है और रिमोट कंट्रोल किसी और के हाथ में है।

आज ग्राम पंचायत को सशक्त बनाने की दिशा में बहुत सारे कार्य बाकी हैं। कुछेक ग्राम पंचायतों को छोड़ दें तो आज भी अधिकांश ग्राम पंचायतों में कार्यालयीन सेट अप नहीं है। शासन स्तर से बहुत कुछ पदों का सृजित होना बाकी है। ग्राम पंचायत में शासकीय चपरासी का पद सृजित नहीं है। ग्राम पंचायत के कार्य महत्वपूर्ण और वृहद होने के बावजूद भी कोई बाबू(लिपिक) का पद सृजित नहीं है। ना ही कंप्यूटर आपरेटर का पद सृजित है। सुव्यवस्थित कार्यालयीन व्यवस्था और आर्थिक सुधार से भी बहुत कुछ परिवर्तन संभव है। आज ग्राम पंचायत में अधिकतम 50 लाख तक के कार्य कराए जा सकने के आदेश तो स्वीकार्य हैं किन्तु इन कार्य के देखरेख के लिए स्पेशल ग्राम पंचायत में कोई पद सृजित नहीं है। ग्राम पंचायत यदि सीढ़ी की पहली पायदान है तो उसका प्रबंधन भी मजबूत होना चाहिए। आज भी ग्राम पंचायतें इन सुविधाओं की बाट जोह रही हैं। ग्राम पंचायत में ग्राम सभा की भूमिका अग्रणी है फिर भी सतारूढ़ राजनीतिक दल जो चाहते हैं वही होता है अधिकतर मामलों में यही देखा गया है। ग्राम पंचायत को एजेंसी जरूर बनाया जाता है किन्तु अधिकतर पंचायतों में शासन प्रशासन से जुड़े रसूखदार लोग ही कार्यों को कराते हैं। संविधान में संशोधन से ग्राम पंचायत की स्थापना होने के बाद से आज तक ग्राम पंचायत क्षेत्रों में स्थानीय लोग आज भी ग्राम पंचायत के मूल कार्यों में संलग्न नहीं हैं वहां या तो ठेकेदारी के बतौर कार्य हो रहा है या फिर ले दे कर कार्य हो रहे हैं। स्थितियां परिस्थितियों में सुधार के लिए स्थानीय संसाधनों के विकास के साथ ही सामाजिक बदलाव की भी महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। आज बदलाव की जो तस्वीरें हैं वो नाकाफी हैं इससे कई गुना बेहतर होना चाहिए था। खैर वही होता है मंजूरे खुदा होता है वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।

देर सबेर ही सहीं अब सामाजिक बदलाव में सोशल मीडिया का भी बहुत बड़ा योगदान है। बादल धीरे धीरे ही सहीं छट रहे हैं। अब मंगली ने भी झोरा और स्लेट पेंसिल लेकर स्कूलों की ओर रूख कर लिया है।

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