किताबें झांकती हैं, बंद अलमारी के शीशों से..किसी शायर द्वारा कहीं गई यह लाइनें आज के दौर में सार्थक साबित हो रही हैं। लेकिन इंटरनेट के दौर में पुस्तकों का क्रेज लगातार कम हो रहा है।
पुस्तकालय की कहानियां और किताबों से प्यार, ये गुजरे जमाने का किस्सा बन गया है।अपने पाठकों के लिए तरसती यह किताबें अपने हाल पर आंसू बहा रही हैं। पुरानी पीढ़ियां किताबों को अपना दोस्त समझती थी। बुजुर्गों की मानें तो पहले के लोग दिन के कई घंटे पुस्तकालय में गुजार देते थे। लेकिन आज की युवा पीढ़ी किताबों से बहुत दूर हो चुकी है। इस पीढ़ी के कई युवा ऐसे भी हैं, जिन्होेंने पुस्तकालय का दरवाजा तक नहीं देखा। यह पीढ़ी सोशल नेटवर्किंग साइटों को दोस्त ही नहीं, बल्कि अपनी जिंदगी समझने लगी है। इसका नतीजा है कि स्कूली बच्चे सिर्फ अपने सिलेबस तक की बुक्स ही पढ़ रहे हैं। साहित्य की दुनिया से बच्चे और अभिभावक दोनों ही दूर हो रहे हैं
“यह देश के आम मध्यवर्ग की मानसिकता है। बच्चों के मानसिक विकास की समस्याओं को आज भी गंभीरता से नहीं आंका जा रहा है। मध्यवर्ग अपने बच्चों की शिक्षा और मानसिक विकास के लिए अंगरेजी स्कूल में पढ़ाई और अच्छा खाने-खिलाने से आगे नहीं सोच रहा है। यही कारण है कि ‘अपने प्रिय को उपहार में पुस्तकें दें’ नारा व्यावहारिक नहीं बन पाया है।
इन दिनों दुनिया का व्यापारिक जगत भारत में अपना बाजार तलाशने में लगा हुआ है। दैनिक उपभोग की एक चीज बिकते देख दर्जनों कंपनियां वही उत्पाद बनाने-बेचने लग जाती हैं। होड़ इतनी कि ग्राहकों को रिझाने के लिए छूट, ईनाम, फ्री सर्विस की झड़ी लग जाती है। आम आदमी की खरीद क्षमता बढ़ रही है। पैसे के बहाव के इस दौर में भी किताबें दीन-हीन-सी हैं। इतनी निरीह कि हिंदी प्रकाशक को अपनी पहचान का संकट सता रहा है।”
आम घरों में किताबें घर या बच्चों के लिए ‘आवश्यक’ की सूची में नहीं आ पाई हैं। इसके दो पहलू हैं- एक तो पुस्तक साबुन-तेल की तरह उपभोक्ता वस्तु नहीं है और न ही उसका इस तरह प्रचार होता है। दूसरा, आम पाठक के लिए पुस्तक महज उसकी जरूरत पर याद आने वाली वस्तु है। इसका एक विपरीत असर भी हुआ है- खासकर हिंदी और कई भारतीय भाषाओं में पुस्तकों की विशाल संख्या में ‘स्वांत: सुखाय’ वाला हिस्सा ज्यादा बड़ा हो गया है।