अरे, आज तो आप मिस करवा चौथ हैं, आप क्या ही काम करेंगी! आपको क्या, घर जाकर रोटियां ही तो बेलनी हैं। ओह! आपको सजने संवरने में भी वक्त लगता होगा। आपका तलाक हो चुका है, आपकी जरूरतें मैं पूरी कर सकता हूं। शॉपिंग के अलावा करना ही क्या है आपको। आज तो ऑफिस में उजाला हो गया, बिजली जो आ गई। इस तरह की फब्तियां कसी गईं। कभी मजाक-मजाक में मेरे सामने ही बोल दिया गया, और पीठे पीछे तो जाने कितनी ही बारी मैं चर्चा का विषय रही। हर जगह महसूस यही कराया गया कि मैं कमतर हूं । एक कलीग के तौर मुझे स्वीकार करने में काफी वक्त लिया गया। यह कहना है इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) की पूर्व महासचिव डॉ. मोहिता शर्मा का।
मीडिया से बात करते हुए डॉ. मोहिता शर्मा बताती हैं, ‘मैं पेशे से डॉक्टर हूं। लगभग 25 सालों से काम कर रही हूं। मैंने अब तक हजारों आंखों की सर्जरी की। मरीजों की देखभाल भी की। कई कॉलेजों में गेस्ट लेक्चर लिए और कितने ही वर्कशॉप और सेमिनार का हिस्सा हुई, लेकिन मेरा ये सफर आसान नहीं था।’
सपनों के इतर डरावनी थी शादी की सच्चाई
मेरा बचपन बड़ा हसीन बीता। पापा हेल्थ मिनिस्ट्री में एडिशनल जनरल डायरेक्टर थे। मेरी मां मैत्रेयी पुष्पा उस वक्त हाउस वाइफ थीं। बाद में लेखिका बनीं। मुझ समेत तीनों बहनों की परवरिश बेटों की तरह हुई। मां ने कभी हम तीनों बहनों को घर के कामकाज नहीं करने दिए। हमारा सारा ध्यान पढ़ाई-लिखाई पर रहता। लोग कहते कि तीन-तीन बेटियां हैं शादी का इंतजाम कीजिए, लेकिन मां-पापा कहते भविष्य संवारिये, शादी हो जाएगी।
मैंने डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की। साल 1992 में मेरी शादी हो गई। उस वक्त मैं 21 साल की थी। ससुराल में प्रवेश करते ही मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। परियों वाली कहानी के इतर मेरी सच्चाई बेहद डरावनी थी। पति भी पेशे से डॉक्टर थे। फिर भी उन्होंने बाहर जाकर काम करने पर पाबंदी लगा दी गई। बिना मेरी मर्जी जाने ससुराल वालों ने फरमान सुना दिया कि अब से न्यूज पेपर नहीं पढ़ोगी। किचिन संभालो। यही तुम्हारा काम है।
शादी से पहले मैंने जैसी जिंदगी जी थी, उसके बाद मेरे लिए यह किसी सदमे से कम नहीं था। फिर सोचा कि वक्त के साथ हमारी घर गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी। ससुराल वालों का दिल भी आज नहीं तो कल पिघल ही जाएगा। सब ठीक होने की उम्मीद में नौ साल बीत गए, लेकिन कुछ नहीं बदला। हर बीतते वक्त के साथ मेरा सांस लेना दूभर हो गया। मजबूरन मुझे शादी तोड़ने का फैसला लेना पड़ा।
संपन्न परिवार से थी, इसलिए कभी किसी चीज के लिए संघर्ष ही नहीं करना पड़ा था, लेकिन जिल्लत भरी जिंदगी से बाहर निकलने के लिए बढ़ाए गए मेरे एक कदम ने मेरा वक्त और अपनों के जज्बात बदल दिए। न काम था न पैसा, न रहने को जगह थी। कॉन्फिडेंस की धज्जियां उड़ चुकीं थीं। उस वक्त मैं एकदम अकेली हो गई। खुद को खत्म करने का ख्याल भी आया। फिर लगा नहीं, मैं ऐसे हार नहीं मान सकती। मुझे अपने लिए खड़े होना होगा। अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। इसके बाद, मैंने कुछ जानने वालों से पैसे उधार लेकर क्लीनिक शुरू किया, जो अब हर दिन सैकड़ों मरीजों की आंखों की रोशनी बचाने के लिए काम कर रहा है। उनकी जिंदगी में रोशनी वापस ला रहा है। मेरा बुरा वक्त बीता तो अपनों की नाराजगी भी खत्म हो गई।
तलाक के बाद कुछ दिन बहुत बुरा लगा कि आखिर यह सब मेरे साथ ही क्यों हुआ? उसी पल सोचा कि खुद के लिए जी चुकी। अब समाज के लिए जी कर देखती हूं। धीरे-धीरे मेरी जिंदगी की गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगी। दो संस्थाएं बनाईं, जो हेल्थ सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए काम करती हैं। उन महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने का काम कर रहीं हैं।
मेरी लाइन सर्जिकल है। शुरुआत में मरीज जांच कराने आते। आते ही पूछते- डॉक्टर साहब कहां हैं? डॉक्टर साहब बुलाइए। हालात ये थे कि खुद को मैच्योर दिखाने के लिए 10 साल तक साड़ी पहनकर क्लीनिक जाती रही। एक बार में मुंबई के एक अस्पताल में विजिट के लिए गई। वहां देखा कि एक बेहद एवरेज पर्सनैलिटी के डॉक्टर को मरीज भगवान की तरह ट्रीट कर रहे थे। उनसे मिलने के बाद मेरा नजरिया बदल गया। आज लोग कहते हैं कि सर्जरी डॉ. मोहिता से ही करानी है।
तीन बच्चों का संवार रहीं भविष्य
मुझे बच्चे पसंद हैं, लेकिन कुछ हालात ऐसे थे कि मैं अपना बच्चा करने के बारे में नहीं सोच पाई। कई बार गोद लेने के बारे में भी सोचा। फिर लगा नहीं। मुझे बच्चों का भविष्य संवारना है, इसके लिए ये जरूरी नहीं कि मैं उन्हें गोद लूं। कानूनन उनकी मां बनूं। इसके बाद एक संस्था के जरिये तीन गरीब बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा उठाने की सोची। वे तीनों बच्चे अभी पढ़ रहे हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि वे तीनों अपने भविष्य में अच्छा करेंगे और उस दिन मुझे बहुत खुशी होगी।
मोहिता बताती हैं कि मेरे पास दो पवेलियन डॉग हैं, जिनके साथ खेलकर मेरा तनाव काफूर हो जाता है। समय निकाल कर सामाजिक संस्थानों के लिए काम करती हूं। मेरे आसपास हर वक्त आतिफ असलम के गाने बजते रहते हैं। सर्जरी के दौरान भी में आतिफ के गाने सुनती हूं। इसके अलावा घर पर योग करना, टीवी देखती हूं।
इतना ही नहीं वर्कप्लेस पर छेड़छाड़ जैसे मामले होते हैं, तो उनकी जांच के दौरान महिलाओं पर ही उंगली उठाई जाती है। मैनेजमेंट की कोशिश रहती हैं कि समझा कर या डराकर मामले को रफा-दफा किया जा सके। अगर ऐसा नहीं हो पाता है, तो फिर उछाल दिया जाता है नाम और बिना सुनवाई ही ठहरा दिया जाता है गुनहगार। महिला से कहा जाता है कि तुम अकेली कमरे/केबिन में गई ही क्यों? आखिर ये कैसा सवाल है। अगर किसी पर्सन से काम है, तो उससे मिलने के लिए क्या सिक्योरिटी गार्ड को साथ लेकर जाना होगा?