वो गुजरे हुए लम्हे…..वक्त तो है कब,कहा,कैसे खोए हुए को मिला दे…युवा कलमकार विश्वनाथ देवांगन उर्फ मुस्कुराता बस्तर की कलम से….. *”भाग्य मिलाता है…..”*

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जेठ की दुपहरी में पसीने से तर-ब- तर पार्वती खेत से घर की ओर आ रही है | पसीने से तर-ब-तर फिर आंखों में चमक और गजब की खुशी छलक रही है | गांव की युवती ठेठ देहाती,लचकती कमर,मटकते पांव कजरैली नयना जैसे किसी खूबसूरती की कहानी कह रही हो | मां बैठी है और जंगल से लाये छिंद की झाड़ू बना रही है |
आज समय से पहले आती हुई देख मां कहने को कुछ कहती उससे पहले ही पार्वती कहती है – काम जल्दी पूरा कर लिया मैंने,मैं आज सिनेमा जाउंगी,सहेलियों के साथ | बेटी की आंखों में खुशी को देखकर मां भी कुछ नहीं बोल पाई पर पूछ बैठी – शाम हो जायेगी फिर कैसे आओगी किनके साथ तुम लोग | मां की बात का जवाब देते हुए- हम ऑटो या रिक्शा से आ जायेंगे | ठीक है लेकिन जल्दी शाम होने से पहले घर पहुंच जाना |
सिनेमा की चाहत और यौवन की छटा जैसे किसी फुदकती चिड़िया की तरह होती है | पार्वती खुशी से सहेली मीना के संग चल पड़ती हैं, रास्ते में और सहेलियां भी मिल जाती हैं | गांव के चौराहे के पास ऑटो में बैठकर चल पड़ते हैं सिनेमाघर की ओर |
गांव से 10 किमी दूर कैलाशनगर शहर पहुंच कर सिनेमा हाल पहुंच जाते हैं | टिकिट की मारामारी के बाद टिकिट लेकर सीट पर बैठ जाते हैं | सिनेमा में फिल्म भी चालू हो जाता है | अंधेरे सिनेमा हाल में जब लाइट की छीटें पड़ती हैं तो आस पास बैठे फिल्म देखने वाले कुछ-कुछ चेहरे दिखते हैं |
जब रोशनी फिल्म के साथ कम ज्यादा होती है,फिल्म चल रही है तभी सभी हंसते हैं |उसी वक्त पार्वती के सीट के ठीक बगल की सीट पर बिठाने के लिए टिकटवाला किसी सांवले सुंदर छवि के नौजवान दर्शक को लेकर टार्च की रोशनी दिखाते हुए आता है,और बैठा कर चला जाता है | कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता सभी फिल्म देखते हैं |
फिल्म में प्यार की तड़प का दृश्य चल रहा है सहेलियां पार्वती को अंधेरे में फिल्म के सीन को देखकर धीरे से फूसफुसाकर कहती हैं- क्यूं रे पार्वती तेरा शंकर भी तो ऐसा ही था ना | पार्वती उस पल को याद करके जैसे सिहर गई | पर पार्वती को भी नहीं पता कि उसका शंकर कहां पर किस हाल में होगा |
दस साल पहले शंकर दीवाली की रात अपने पापा की तबीयत खराब होने के कारण उसे अस्पताल लेकर गया था | तब फिर दुबारा नहीं आया,सुनाई आया था कि चिट्ठी आई थी मुखिया जी के पास,तो घर भी बेचकर मुखिया जी ने पैसे डाकिया के हाथ अस्पताल में भिजवा दिये थे | तब से किस हाल में हैं कोई पता खबर नहीं |बाप और बेटे के सिवाय कोई नहीं था | दिहाड़ी मजदूरी करके जीवन जीते थे | पर आज तक कोई खोज खबर नहीं है | शक्ल और सूरत तो हल्की सी याद है सहेलियों को पर पार्वती कैसे भूल सकती है शंकर को जब पार्वती काम पर गई थी तो शंकर भी काम पर गया था | एक दिन जब पार्वती के पैर में कांच गड़ गया था तो शंकर ने ही अपना गमछा फाड़कर बांधा था और सायकिल से घर तक पहुंचाया था | और मन की नजरों में पार्वती और शंकर एक दूसरे को पसंद करने लगे थे पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था | फिल्म में प्रेम के दृश्य देखते ही पार्वती की आखों में आंसू आ जाते हैं पर चुपचाप आँसू पोछकर रह जाती हैं |
सहेलियों के हंसने के साथ पार्वती की नाम को बगल में बैठे युवक सुनता जरूर है,पर यह कैसे हो सकता है कि दस साल पहले वो जिस लड़की को चाहता था वही उसके बगल में बैठी है | और गांव और शहर भी पराया |
दरअसल जब बाप के इलाज के लिए लेकर शंकर जाता है तो जीवन और मृत्यु से संघर्ष करते अंतत: शंकर के पिता की मौत हो जाती है | लेकिन शंकर के सामने उस वक्त जीवन जीना जरूरी था तो पैसे भी इतने नहीं कि वो गांव दूर जाकर फिर से बस जाये | शहर में दिहाड़ी करते हुए धीरे-धीरे अपनी कमाई से बढ़ाकर जीवन को पटरी में लाता है | जब कोई रिश्तेदार और चाहने वाले नहीं होते तो मित्र होते हैं जब मित्रों ने शंकर के शादी की बात की तो शंकर ने अपनी आप बीती बतायी | मित्रों ने शंकर को पार्वती की खोज में जाने का सुझाया और शंकर निकल पड़ा गांव की ओर | तभी गांव के ठीक पहले वाले शहर के नामी सिनेमाघर में फिल्म “भाग्य मिलाता है” लगी होती है | फिल्म देखने की इच्छा से सिनेमा में फिल्म देखने पहुंच जाता है कि चलो भाग्य मिलाता है तो जरूर मिलायेगा | फिलहाल फिल्म देख लिया जाय |
फिल्म चल रही है सहेलियां बीच में हंसती हैं | तभी अचानक पार्वती के हाथ के पास किसी का हाथ टकराता है | पार्वती दबी नजरों से ताड़ती है,जानी पहचानी पर परदेशियों के शहर में अपना कौन,और झटके देकर अलग कर कर देती है,तभी- सॉरी मैम जी, कहकर शंकर हाथ हटा लेता है | कोई बात नहीं… ! ऐसा कहते ही अचानक नंजरें हल्की लाइटों में शंकर की ओर देखती है | पार्वती को बिजली करंट दौड़ जाता है शंकर और पार्वती एक दूसरे को देखते ही रह जाते हैं | फिर भी रह रहकर नजरें मिलती हैं | पर कोई कुछ नहीं कह रहा पर एक लगाव जो बिछड़ा था आज फिर जागने को मन कर रहा है | पर दोनों चुप हैं कि अजनबियों के शहर में |

अचानक पार्वती सहेलियों से कहती है चलो घर चलते हैं उसे ठीक नहीं लग रहा है शायद तबीयत खराब होने वाला है | सहेलियों के साथ बाहर निकल जाती हैं |
पीछे-पीछे शंकर भी निकलता है | जब बाहर बिजली की रोशनी में आते हैं तो पार्वती की सहेलियां भी शंकर को तुरंत पहचान लेती हैं,और शंकर भी |

पार्वती को जब यकीन हो जाता है कि यही शंकर है तो शंकर के जाकर गले लग जाती है |
सभी खुशी से झूम उठते हैं | सहेलियां पार्वती से हंसती हुई कहती हैं…..
तो मैडम जी तबीयत इसीलिए खराब हो रहा था,बुखार तो आना ही था |
फिर सभी ठहाके लगाकर हंसती हैं…… हा हा हा…..,
आज शंकर को बचपन का साथी और सहेलियों को एक अच्छा मित्र मिल जाता है |
सच कहा है कि भाग्य मिलाता है |
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*विश्वनाथ देवांगन”मुस्कुराता बस्तर”*
*कोंडागांव बस्तर छत्तीसगढ़*

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