राजाराम त्रिपाठी:हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी 22 मई को हमने “अन्तराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस “मनाया।यूं तो हम हर साल इसे मनाते हैं, पर क्या सचमुच हम अपनी जैव विविधता के संरक्षण के लिए गंभीर हैं??बाकी देशों का तो दावे के साथ नहीं पता, पर भारत में तो “जैव विविधता संरक्षण “का मसला निर्विवादित रूप से,केवल बौद्धिक जुगाली तक ही सीमित है,जबकि जैव विविधता की दृष्टि से भारत सबसे धनी देशों में से एक है। हमारे देश में पेड़़-पौधों की लगभग 46340 तथा कीट पतंगों की 57525 से भी अधिक प्रजातियां विद्यमान हैं।केंद्र ने इसे राज्य सरकारो पर, तथा राज्य सरकारों ने इसे अपने स्वनाम धन्य ” वनविभाग “के मत्थे डाल रखा है। हम पर सदियों तक राज करने वाले अंग्रेजों ने हमारे जंगलों की बेशकीमती वन संपदा के सुविधा पूर्वक, अधिकतम दोहन के दृष्टिकोण से वन विभाग की स्थापना की थी। अंग्रेज चले गए राज बदला पर वन विभाग का मिजाज नहीं बदला।
प्रायः, खाओ- पिओ, और पचाओ,
बेचने से बचे तो, वन भी बचाओ ,,
के सूत्र वाक्य पर कार्य करने वाले इस विभाग को भला इस नामाकूल , अनुर्वर, सूखे विषय से क्या लेना देना । बेवजह एक बेचारे , बौद्धिक से उच्चाधिकारी को इस घोषित ” लूप लाइन ” पोस्टिंग के लिए नियुक्त करना पड़ता है। जबकि अधिकांशतः तो साहब बहादुर ” लूप लाइन ” पोस्टिंग के बजाय ” लूट लाइन ” पोस्टिंग के जुगाड़ में लगे रहते हैं।( मेरा अनुमान अगर गलत सिद्ध होवे तो,मुझे सर्वाधिक प्रसन्नता होगी)
सरकारी प्रयासों का परिणाम तो हमारे सामने ही है।अतएव अब हम सब को इन के संरक्षण के लिए आगे आना ही होगा।इसके लिए सतत जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। केवल साल में एक बार समारोह या दिवस मनाने से कुछ नहीं होने वाला।विभिन्न सरकारों के द्वारा भूत आधारित राजनीति के चलते वन भूमि पट्टा वितरण की राजनीतिक एजेंडे में जंगलों को अभूतपूर्व क्षति पहुंचाई है। दुर्भाग्यवश वोट बैंक की राजनीति के चक्रव्यूह में फंसकर इन वनों के असली राजा यहां के मूल निवासियों ने,अपने लाखों साल के प्राकृतिक आवास को, साल के 12 महीने कुछ न कुछ वनोपज संपदा प्रदान करने वाले अपने जंगलों के खजाने को, अपनी ही सदियों की सेवित भूमि का सरकारी स्थायी अधिकार पट्टा प्राप्त करने के प्रयासों के तहत साफ कर डाला।
विगत 20 वर्षों में कुल कितने वन संपदा तथा जैव विविधता के खजाने से भरपूर शानदार जंगल भूमि अधिकार पट्टा के नाम पर सरकारी नीतियों की भेंट चढ़ गए, इनके जिंदा आंकड़े दंग करने वाले हैं। जिंदा उदाहरण के तौर पर, हमारा बस्तर अपनी समृद्ध “जैव विविधता”के लिए देश विदेश में प्रसिद्ध है।उल्लेखनीय है कि बस्तर की कई वनौषधियों आज विलुप्त होने की कगार पर खड़ी है।जैसे कि एक समय में बस्तर में भरपूर मात्रा में पाईं जाने वाली *सर्पगन्धा,मजूरगोड़ी, रसना जड़ी, तेलिया कन्द, कलिहारी,क्षीर कन्द,पाताल कुम्हड़ा ,इन्द्रायन आदि आज कन्ही पर भी दिखाई नहीं देते। इसी प्रकार पैगोलिन,सफेद नेवला,मूषक हिरन,गुलबाघ , गोह,वन भैस, आदि जो कि बस्तर की एक तरह से पहचान थी,आज खतरे में हैं। बस्तर की दुर्लभ प्रजाति की अदभुत मैना तो अब किवदन्ती बनकर रह गई है,।*
हमारी इस अनमोल “जैव विविधता” के लगातार छीजते खजाने के लिए, वनों की हर साल लगने वाली ” सर्वग्राही आग ” भी एक बहुत बड़ा बड़ा खतरा है। वनों की आग, सुरसा की भाँति पेड़, पौधे, लताएं,झाड़ियाँ, जीव, जन्तु, कीट, पतंगे, मित्र जीवाणु सब कुछ लील जाती है,, जिसे कि तैयार होने में लाखों साल लगते हैं। कई दुर्लभ प्रजाति की वनौषधियाँ भी इसी आग की भेंट चढ़ गईं । जंगलों की आग को रोकने के सरकारी प्रयास केवल कागजी खाना पूर्ति तक ही सीमित हैं। जन जागरूकता के नाम पर चन्द ” साइनबोर्ड ” राष्ट्रीय राजमार्ग पर लगे हैं। अब अपनी “साइन” खो चुके इन ” साइन बोर्डों ” के देखकर अगर शर्म के मारे, यह जंगल की आग सवंय ही बुझ जाये तो अलग बात है, वरना जंगल तो हर साल, तब तक, आग के हवाले होते ही रहेंगे, जब तक कि जंगल पूरी तरह से समाप्त ना हो जाए। फिर तो ना रहेगा बांस और न रहेगा बांसुरियों का झमेला।और फिर,नहीं रहेगी ” जैव विविधता दिवस ” मनाने की जहमत ।