छत्तीसगढ़ बस्तर का कोंडागांव जिला जो अपनी विशेष पहचान पूरी दुनिया में रखता है | साथ ही यह प्राकृतिक संसाधनों की अकूत संपदाओं और जैव विविधता के विभिन्न प्रकारों को भी परिलक्षित करता है | बस्तर का कोंडागांव संवेदनशील होने के साथ ही विकास के मायने भी गढ़ रहा है | एक दौर ऐसा भी था कि सुदूर अंचलों में प्रशासन की पहुंच नहीं के बराबर थी और लोग जाने के लिए आशंकित रहते थे | आज इन वादियों में बंदूक की धमक नहीं चिड़ियों की चहचहाहट भी सुनाई देने लगी हैं | कोंडागांव जिला मुख्यालय से 30 किमी दूर हम मर्दापाल की ओर चलते हैं | जहां शनिवार को इलाके का सबसे बड़ा ग्रामीण हाट(बाजार) लगता है | जहां लोग दैनिक जीवन की साजो सामग्री लेकर अपने गंतव्य को चले जाते हैं | ग्रामीण क्षेत्रों के बाजार प्राय पूरे दिन या फिर मौसम के हिसाब से पहले पहर या फिर दोपहर को भरते हैं | मर्दापाल के बाजार की रौनक बढ़ जाती है,जब आस पास के गांवों के लोग इस बाजार में आते हैं |
अब हम आगे की ओर बढ़ने लगते हैं तो प्रकृति की वादियों में चिड़ियों की चहचहाहट के बीच कोयल की कूक और पपीहे की टेर सुनकर मन मस्त मौला हो जाता है | कुछ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हम ग्राम पंचायत हसलनार पहुंचते हैं जहां ग्रामीण जीवन का बोध होता है और गांव और शहर के जैसे होने की धूंधली तस्वीर जींस पेंट और लुंगी छाप का मिश्रण ग्रामीण जीवन शैली आकर्षित करती है | गाड़ी के पहिये चलने लगते हैं और चलाने वाला कोई नया ड्रायवर हो तो मन बार बार ड्रायवर की ओर जाता है पर यहां वनों की हंसीन अल्हड़ प्राकृतिक सौंदर्य और वादियां किसी भी शैलानी का मन मोह लेने के लिए काफी हैं | गांव की ओर जाने वाली पगडंडी नुमा कंकड़ पथरीली सड़क जिसे हम रोड कहते हैं पर ऐसा बिलकुल भी नहीं है,आगे बढ़ते हुए मटवाल टेकापाल गुमियापाल आदि गांवों और प्रकृति की सुरम्य वादियों का आनंद लेते हुए एक गांव पहुंचते हैं जिसे कुधूर कहते हैं |
कुधूर प्रकृति की गोद में बसा हुआ कोंडागांव जिले के अंतिम छोर का गांव है | जहां लोग ग्रामीण जन जीवन और ग्रामीण भारत की व्यवस्था और प्रकृति की दक्षता के आगे अपने को हर्षित पाते हैं | इन नदी नालों में जितनी पानी की पारदर्शिता और प्रकृति की जीवटता के जैसा यदि हमारे मन में हो तो मेरा मानना है कि हमारे शरीर में व्याधियां ही न हों,ऐसे खुशनुमा माहौल में हम दुरूस्त ही रह सकते हैं |
भंवरडीग नदी के किनारे बसा गांव सुंदर और मन मोहक है कि वहां जाने के बाद आने के लिए मन नहीं करता है | फिर यहां वनों में होने वाली वो अनसुनी और अनजानी आवाजों की कही सुनी डर आने को मजबूर करता है | पर वो अतीत है,आज फिजायें बदल रहीं हैं,पर डर तो डर है | अब डर जैसी कोई बात नहीं है | हम नदी के किनारे बसाहट को पार करते हुए गांव और ग्रामीण जनजीवन और लोगों को मिलते हंसते गुनगुनाते गांव की इमली की चटनी और देसी जाम के चटकारे लगाते नदी के संगम पर पहुंते हैं | बताया जाता है कि यह इलाका कुधूर का इलाका है पर अब छोटी पंचायतें होने से धर्माबेड़ा ग्राम पंचायत बन गया है जो लोहंडीगुड़ा ब्लॉक के अंतर्गत आता है |
कुधूर में दोनों नदी के संगम पर दृश्य और भी मनोरम हो जाता है,जब नदी में भैंस पर चरवाहा सवारी करते हुए डुबकी लगा कर नहा रहा होता है | जहां गांव के बैल भैंस और पालतू जानवर मन को मोह लेते हैं | गांव के कुछ लोगों के साथ नदी में नहाने का लुफ्त उठाने का अंदाज बड़ा ही निराला है | गांव के लोग नदी में नाव के भी सुलझे सधे नाविक होते हैं | जब ये नदी से नाव इस पार से उस पार ले जाते हैं तो डर के साथ साथ आनंद की अनुभूति नदिया के पार फिल्म के चंदन और गुंजा के नदी पार करते दृश्य की याद दिला देता है |
कहते हैं कि जीवन का आनंद गांव में है और भारत गांव में बसता है | ग्रामीण भारत का यह पड़ाव के बाद हम न जाने और बहुत कुछ छोड़ जाने वाले भावों के साथ आगे बढ़ते हैं तो चंदेला,ककनार जो लोहंडीगुड़ा ब्लॉक के गांव हैं |
चलते हुए प्रकृति के नजारे देखते ही बनते हैं | चलते ही हम परोदा के पहाड़ी से बिंता भेजा गांव की ओर निहारते हैं तो ऐसा लगता है कि हम किसी दूसरी दुनिया में हैं और हम और प्रकृति के सिवा दूसरा नहीं है | मन प्राकृतिक सौंदर्य की छटा देखकर चकित हो जाता है यकीन मानिये की आपको मन में बहुत ही अच्छी फीलिंग आयेगी जिसे शब्दों में बयां कर पाना संभव नहीं है | सधे ड्रायवर और दौड़ती गाड़ी के सरपट पहिए कभी ग्रामीण हाट में तो कभी बुदरू के घर देशी सुकसी की आस में रूकते हैं | यहां गांव के अधिकतर लोगों के जीवन यापन का स्रोत नदी है जहां मछली पकड़ने के बाद यहां के लोग स्थानीय हाट बाजारों में बेचकर अनाज और दूसरी दैनिक उपयोगी सामग्री की पूर्ति करते हैं | गांव में पारंपरिक फसलों की भी बहुतायत होती है जीरा टोपा और देशी बरबटी के साथ फूटू सोला का देशी स्वाद किसी के भी मुंह में पानी आने को मजबूर करता है | जीरा के कुछ पौधों को शौक से तोड़कर साथ में रखकर लाते हैं ताकि देशी तीखा तड़का का जायका लिया जा सके | लोगों का ग्रामीण जीवन और भारत के विकासशील स्वरूप को देखना हो तो बस्तर के कुधूर गांव का सफर करना जरूरी है | पड़ाव पर आगे हम चलते हुए सूरज की ढ़लती किरणों के बाय-बाय संकेत के चलते गंतव्य को लौटने का मन करता है,रास्ते पर गांव के ठेठ बस्तरिया अंदाज में बने समोसों का मजा लेते हुए आधुनिकीकरण का मानक कहे जाने वाले पक्की सड़क पर कोरमेल के आगे पहुंचते हैं | जहां से लगभग 28 किमी का जंगल के बीच सड़क मार्ग से पुन: वापसी कर हसलनार चौक पहुंचते हैं और गांव के ढाबा और होटल के मिक्स दुकान पर चाय की चुस्कियों और ब्रिटानिया टायगर खाओ कुछ बने के दिखाओ वाले विज्ञापन से भरे टायगर बिस्किट का मजा के साथ | फिर आगे बढ़ते हुए मर्दापाल पहुंचते हैं मंद मंद बयारों के बीच ठंड की दुबकी धमक के बीच गाड़ी की रफ्तार बढ़ने लगती है | कुधूर की यादें दूर होकर भी पास आने लगती हैं मन मस्त मौला खो जाने का मन करता है | सच कहूं – कुधूर,तुम सा हो जाने को मन करता है |
*✍🏽©®विश्वनाथ देवांगन’मुस्कुराता बस्तर’*
कोंडागांव,बस्तर,छत्तीसगढ़