गोपी साहू:आज की दुनिया में हर कोई कुंठा और तनाव से जूझता दिख रहा है और उससे निपटने के लिए मानसिक दबाव बढ़ता जा रहा है. किसी न किसी तरह सभी अपनी स्थिति से असंतुष्ट हैं. सब के साथ कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है कि सभी वर्तमान क्षण का पूरा रस नहीं ले पा रहे हैं और जीवन बीता जा रहा है.
परिस्थितियां प्रतिदिन उपलब्धियों के नए स्तर और आयाम भी दिखाती रहती हैं और इन सब के बीच जीने की राह ढूंढ़ना दिनोंदिन मुश्किल चुनौती बनती जा रही है. बढ़ते अंधेरे वाले ऐसे समय में महानायक श्रीकृष्ण का स्मरण प्रकाश की किरण जैसा भरोसा देने वाला और आश्वस्त करने वाला है.
भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक स्मृति को टटोलें तो मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र संक्रमण और युग संधि की बेला में उपस्थित होता है और मानव स्वभाव की उत्तम, मध्यम और हीन – हर तरह की प्रवृत्तियों के साथ उनको जूझना पड़ा था. भागवत और महाभारत के साथ अन्य तमाम काव्यों और लोक जीवन में व्याप्त कथाओं में श्रीकृष्ण हर तरह के कष्ट से छुटकारा दिलाने वाले सर्वजनसुलभ त्राता के रूप में भारतीय मन में बसे हुए हैं.
जन्म से ले कर जीवनपर्यंत वे इतने रूपों और इतनी भूमिकाओं में आते हैं कि उनकी कोई एक स्थिर पहचान तय करना मुश्किल है. वैसे तो उनकी विपुल गाथा में अनेक अवसर आते हैं जहां वे अपने विचार और व्यवहार से मार्गदर्शन देते हैं और सीखने के लिए बहुत कुछ मिलता है, पर भगवद्गीता का उपदेश ही मुख्य है जिसमें वह जीने की राह बताते हैं और उस मूल सिद्धांत का प्रतिपादन है जिसे योग का नाम दिया गया है. श्रीकृष्ण योग से युक्त होने पर बल देते हैं और योग की कई विधाएं बताते हैं, पर एक आधारभूत संदेश यह है कि जीवन कर्ममय है और वह अस्तित्व की प्रकृति का हिस्सा होने के कारण अनिवार्य है.
इस कर्म का ठीक तरह से नियोजन कैसे किया जाए, यह मुख्य प्रतिपाद्य हो जाता है. कर्म की व्याख्या करते हुए श्रीकृष्ण उसे सहज स्वाभाविक जीवन प्रक्रिया मानते हैं और कर्म करते समय उसे फल की कल्पित भावना से मुक्त रखने का विवेक विकसित करने को कहते हैं. ऐसा सहज कर्म ‘अकर्म’ हो जाता है.
यहां कर्म के साथ जुड़े कर्तापन के भाव से भी मुक्ति दिलाने पर बल दिया गया है क्योंकि पांच तत्व कारण के रूप में उपस्थित रहते हैं. सहज कर्म की संस्कृति सृजनधर्मी होती है. गीता पढ़ते-गुनते हुए मन में बहुत से सवाल उठते हैं कि जिस तरह आचरण की बात कही जा रही है वह जीवन में कैसे उतरेगा. उदाहरण के लिए अनासक्त कर्म की बात लें तो यह सवाल उठता है कि असंपृक्त होकर भी रुचि से कार्य करते हुए जीना कैसे हो सकता है? कर्म तक ही अपना अधिकार मान कर फल से निर्द्वंद्व कैसे रहा जाए?
स्थितप्रज्ञ के विचार को लें तो प्रश्न उठता है कि राग,भय और क्रोध का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है? योगयुक्त जीवन जीने के लिए अभ्यास और वैराग्य की राह कैसे अपनाई जाए? थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मयोग की जो विशद व्याख्या वे प्रस्तुत करते हैं वह उन्हीं पर पूरी तरह से घटित भी होती है. वह स्वयं उस तरह से जीने के निदर्शन भी हैं. श्रीकृष्ण जिस सिद्धांत की बात करते हैं वह कोरी सिद्धांत की ही बात नहीं है. श्रीकृष्ण जीवन को समग्रता में स्वीकार करते हैं और पूर्णता में जीते हैं.