स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायक जल्ला उर्फ ​​मनोहर सिंह ने जीवन भर आजादी की लड़ाई लड़ी लेकिन उनका योगदान इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया… उनकी गुमनाम कहानी उन अनगिनत नायकों का प्रतिनिधित्व करती है जिन्होंने बिना किसी व्यक्तिगत लाभ की चाह में देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया

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कमलेश यादव : भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में कई ऐसे नायक हैं जिन्हें आज भी लोग नहीं जानते। इन्हीं गुमनाम नायकों में से एक थे छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के जल्ला’ उर्फ मनोहर सिंह। उनका जन्म 13 मई 1912 को एक साधारण परिवार में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वे केवल आठवीं कक्षा तक ही पढ़ाई कर पाए, लेकिन देशभक्ति का जुनून उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में ले आया।

मनोहर सिंह ने वासुदेव देवरस के नेतृत्व में छात्रों का एक संगठन बनाया और उसमें सक्रिय भूमिका निभाई। विदेशी कपड़ों की होली जलाना, शराब के दुकानों के सामने धरना देना, और नारेबाजी करना उनके लिए साधारण काम थे। वे विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार आंदोलन में भी सक्रिय रहे। इस आंदोलन के दौरान और गढ़वाली दिवस के अवसर पर उन्हें कारावास भी हुई।

सन 1932 में महात्मा गांधी पहली बार बिलासपुर आए थे। इस अवसर पर शनिचरी पड़ाव में होने वाली सभा की व्यवस्था के लिए बनाई गई समिति में मनोहर सिंह को भी काम सौंपा गया था। इस आयोजन के बाद उन्होंने सेवादल के सदस्य के रूप में कार्य किया और समिति के लिए मुफ्त में झंडे सिलने का काम भी किया। चरखा आंदोलन को आत्मसात करते हुए उन्होंने जीवनभर खादी के कपड़े पहने और इसी समर्पण के लिए उन्हें कांग्रेस समिति ने चांदी की पॉलिश चढ़ा हुआ कप भेंट किया था।

मनोहर सिंह कई बार जेल गए, खासकर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान। उनके संघर्षों और योगदान को आखिरकार 15 अगस्त 1947 को महाकौशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा “ताम्रपत्र” देकर सम्मानित किया गया। यह उनके जीवन का सबसे बड़ा सम्मान था। सन 1954 में नगर कांग्रेस समिति के तत्कालीन अध्यक्ष रामानुज तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘नगर कांग्रेस का इतिहास’ में मनोहर सिंह का उल्लेख किया, जो आज भी उनके परिवार में सुरक्षित है।

जल्ला’ उर्फ मनोहर सिंह का जीवन स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित था। उनकी गुमनाम कहानी उन अनगिनत नायकों का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्होंने बिना किसी व्यक्तिगत लाभ की चाह में देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। उनका जीवन आज भी हमें प्रेरणा देता है कि सच्ची देशभक्ति के लिए समर्पण और त्याग की आवश्यकता होती है। स्वतंत्रता सेनानी जल्ला, जिन्हें मनोहर सिंह के नाम से भी जाना जाता था, ने अपने जीवन के अंतिम समय में आर्थिक कठिनाइयों का सामना किया। लगभग एक साल तक वे संघर्ष करते रहे और अंततः 1 दिसंबर 1968 को उनका निधन हो गया।

जटिल कागजी प्रक्रिया
उनके बेटे,श्री प्रताप सिंह ठाकुर, ने अपने पिता को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिलाने के लिए सरकारी प्रक्रियाओं से गुजरने का प्रयास किया। लेकिन जब उन्होंने इसके लिए दस्तावेज़ी प्रक्रिया शुरू की, तो पता चला कि 1928 से 1932 के बीच का जेल रिकॉर्ड किसी कारण से नष्ट हो गया था। इसने उनकी स्थिति को प्रमाणित करना कठिन बना दिया, भले ही उनके पास ताम्रपत्र और 1954 में कांग्रेस समिति के अध्यक्ष द्वारा लिखी गई पुस्तक में उनके पिता का उल्लेख था।

इसके बावजूद, सरकारी व्यवस्था के सामने यह प्रमाणित नहीं हो पाया कि मनोहर सिंह वास्तव में स्वतंत्रता सेनानी थे। प्रताप सिंह ठाकुर ने सालों तक आवेदन दिए। कई बार अखबारों में उनके पिता पर लेख प्रकाशित हुए। पुरातत्व विभाग ने स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े दस्तावेज़ों की प्रदर्शनी में उनके चरखे और ताम्रपत्र को प्रदर्शित किया।

प्रयासों की हार हुई
1998-99 के दौरान, बिलासपुर शहर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी छोटे लाल सिंह और चित्रकान्त जायसवाल ने अपने संस्मरणों के आधार पर मनोहर सिंह के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने की पुष्टि करते हुए हस्ताक्षरित प्रमाण पत्र दिए। इसके आधार पर प्रताप सिंह ठाकुर ने मध्यप्रदेश के विभाजन और छत्तीसगढ़ के निर्माण के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों के शासनकाल में कई अपीलें कीं। लेकिन सरकारी व्यवस्था की संवेदनहीनता और जटिल कागज़ी कार्यवाहियों के कारण वे सफल नहीं हो सके। अंततः प्रताप सिंह ठाकुर ने हार मान ली। बाद के सालों में, वे भी बीमारियों से ग्रस्त रहे और इस मामले पर फिर से ध्यान नहीं दे सके। हालांकि, उन्हें जीवन के अंत तक इस बात का अफसोस रहा कि अपने तमाम प्रयासों के बावजूद, स्वतंत्रता सेनानी जल्ला उर्फ मनोहर सिंह को वह सम्मान नहीं मिल पाया, जो उन्हें मिलना चाहिए था।

कई स्वतंत्रता सेनानियों की गुमनामी के मुख्य कारण
इतिहास लेखन में अक्सर प्रमुख नेताओं और घटनाओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जबकि उन लोगों को अनदेखा किया जाता है जिन्होंने छोटे लेकिन महत्वपूर्ण योगदान दिए। सरकारी मान्यता और पुरस्कार अक्सर प्रमुख नेताओं और घटनाओं को दिए जाते हैं, जबकि गुमनाम नायकों को अक्सर अनदेखा किया जा सकता है। समय के साथ, गुमनाम नायकों की कहानियाँ भुला दी जा सकती हैं, खासकर अगर उनके बारे में कोई लिखित रिकॉर्ड न हो। इतिहास की व्याख्या अक्सर व्यक्तिपरक होती है, और गुमनाम नायकों को कम महत्व देते हुए प्रमुख नेताओं और घटनाओं पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है।

आवश्यक सुझाव
इतिहास लेखन, स्कूल और कॉलेज की पाठ्यपुस्तकों में गुमनाम नायकों की कहानियाँ शामिल होनी चाहिए। सरकार को गुमनाम नायकों को आधिकारिक मान्यता देनी चाहिए और उन्हें सम्मानित करना चाहिए। गुमनाम नायकों के बारे में शोध किया जाना चाहिए और उनकी कहानियों का दस्तावेजीकरण किया जाना चाहिए। गुमनाम नायकों के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए कार्यक्रम और आयोजन किए जाने चाहिए। मीडिया को गुमनाम नायकों की कहानियों को प्रमुखता देनी चाहिए और उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाना चाहिए।

स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों को न्याय मिलना अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी, परंतु उनका योगदान अक्सर इतिहास के पन्नों में खो गया। ऐसे नायकों को सम्मानित करना हमारा कर्तव्य है। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देकर उनकी कुर्बानियों को मान्यता दी जानी चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ उनके बलिदान से प्रेरणा ले सकें और उनकी यादें हमेशा जीवित रहें। सत्यदर्शन लाइव भारत सरकार से गुमनाम नायक ‘जल्ला’ उर्फ ​​मनोहर सिंह को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देने का आग्रह करता है।

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