साधारण महिला की असाधारण कहानी…फोर्ब्स ने दुनिया की सबसे ताकतवर महिलाओं की सूची में शामिल किया…आशा वर्कर जमीनी स्तर से कोई भी जानकारी पाने के लिए या वहां की जानकारी देने के लिए अफसर पूरी तरह से इन पर निर्भर हैं…उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी से निपटने में बहुत अच्छा काम किया है

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ओडिशा की आदिवासी आशा वर्कर मतिल्दा कुल्लू को फोर्ब्स ने दुनिया की सबसे ताकतवर महिलाओं की सूची में शामिल किया है। कुल्लू सुंदरगढ़ जिले की बड़ागांव तहसील के गर्गडबहल गांव में पिछले 2005 से बतौर आशा वर्कर काम कर रही हैं।

45 साल की कुल्लू ने इस क्षेत्र से झाड़-फूंक, काला जादू जैसे सामाजिक अभिशाप को जड़ से खत्म कर दिया। उनकी इसी उपलब्धि के चलते उन्हें फोर्ब्स ने मशहूर बैंकर अरुंधति भट्टाचार्य और अभिनेत्री रसिका दुग्गल जैसी शख्सियतों के साथ 2021 में दुनिया की सबसे ताकतवर शख्सियतों में जगह दी है।

सेहत की चौकीदार की सुबह 5 बजे शुरू होती है लाइफ
मतिल्दा का दिन सुबह पांच बजे शुरू होता है। परिवार के चार लोगों की जिम्मेदारी और घर के मवेशियों की देखभाल के बाद वह साइकिल लेकर आशा वर्कर से जुड़े कामों के लिए निकल पड़ती हैं। गांव के हर घर की चौखट पर जाकर रोजाना नवजात और किशोरियों का वैक्सीनेशन, प्रसव पूर्व जांच और बाद की जांच, जन्म की तैयारी, स्तनपान और महिलाओं को परामर्श, एचआईवी सहित साफ-सफाई और संक्रमण से बचने की जानकारी देना मातिलता का काम है।

फोर्ब्स से मतिल्दा कुल्लू ने कहा, “कुछ साल पहले यह वास्तव में खराब था, अब चीजें बहुत बेहतर हैं। लोग अधिक समझदार और कम अंधविश्वासी हो गए हैं। पुरानी पीढ़ी अब भी छुआ-छूत का बर्ताव करती है, लेकिन यह मुझे अब परेशान नहीं करता है।’

प्रेग्नेंट महिलाओं की मदद के लिए आधी रात को जाना पड़ता है
घर-घर जाकर दवा बांटने के अलावा, कई बार ऐसा भी होता है, जब उनकी तबीयत खराब होती है, तो गांव वाले मतिल्दा के घर पर दवा लेने के लिए आ जाते हैं। प्रसव के साथ प्रेग्नेंट महिलाओं की मदद के लिए अक्सर उन्हें आधी रात को भी भागना पड़ता है। कोविड-19 की शुरुआत के साथ आशा कार्यकर्ता अतिरिक्त घंटे भी काम कर रही हैं। मतिल्दा इन सभी जिम्मेदारियों को अकेले ही निभाती हैं और हर महीने उन्हें महज 4,500 रुपये मिलते हैं।

काम 24 घंटे, सैलरी कम, इंसेंटिव के लिए भी लड़ना पड़ा
मतिल्दा कहती हैं, “मुझे अपने काम से प्यार है, लेकिन सैलरी बहुत कम है। यह कभी-कभी निराशाजनक भी होता है क्योंकि हम लोगों की देखभाल के लिए इतना कुछ करते हैं कि हमें समय पर अपना इंसेंटिव यानी प्रोत्साहन राशि पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हाल ही में, दो साल से लंबित हमें अपना इंसेंटिव हासिल करने के लिए विरोध-प्रदर्शन करना पड़ा।” वह सिलाई का काम भी करती हैं ताकि घर का काम ठीक तरीके से चल सके।

कोरोना महामारी के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की जान बचाने के लिए आशा कार्यकर्ताओं ने चौबीसों घंटे काम किया। हालांकि, उनके योगदान को भुला दिया गया। न केवल उन्हें कम वेतन मिलता और अधिक काम लिया जाता है, बल्कि उन्हें कई जगहों पर हिंसा और दुर्व्यवहार का भी शिकार होना पड़ता है।

‘लॉकडाउन में देश बंद था लेकिन हम तैनात थे’
मतिल्दा ने बताया, “जब मार्च में लॉकडाउन था, तो पूरा देश कमरे में बंद था, लेकिन हमें स्वास्थ्य जांच के लिए हर घर में जाने और ग्रामीणों को इस नए वायरस के बारे में जागरूक करने के लिए कहा गया। लोग कोविड टेस्ट से दूर भागते थे, उन्हें समझाना वास्तव में कठिन काम था।” मतिल्दा यह याद करते हैं हुए कहती हैं जब कोरोना की दूसरी लहर के दौरान वह खुद कोविड पॉजिटिव थीं और ठीक होने के बाद दो सप्ताह में काम फिर से शुरू कर दिया।

मतिल्दा बताती हैं कि ग्रामीणों को कोरोना वायरस के बारे में जागरूक करना कठिन काम था, लोग कोविड टेस्ट से दूर भागते थे, उन्हें समझाना वास्तव में मुश्किल था।कोरोना में मास्क, दस्ताने तक नहीं मिले।कोरोना को लेकर जागरूक करने को लेकर उन्हें लोगों के सीधे संपर्क में आने की जरूरत पड़ती थी, जबकि अधिकांश आशा वर्कर्स को पीपीई या मास्क, दस्ताने और सैनिटाइज़र मुहैया नहीं कराए गए थे। ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना पर काबू पाए जाने के बाद उन्हें एक और कठिक काम वैक्सीनेशन की जिम्मेदारी सौंप दी गई। आशा वर्कर्स के सामने सबसे बड़ी चुनौती टीकाकरण के लिए राजी करना रहा।

गांव गांव पैदल घूमती हैं आशा वर्कर
मतिल्दा कहती हैं, “शुक्र है कि मेरे गांव के लोगों ने मेरी बात सुनी और टीका लगवाया। उनमें से बहुतों ने वैक्सीन की दोनों डोज भी ली है। जब मैं दूसरे गांवों के आशा वर्कर्स से बात करती हूं, तो वे मुझे बताती हैं कि लोगों को टीका एक खुराक देने के लिए मनाने में उन्हें बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ता है।” उनका कहना है कि उनके बहुत से सहयोगियों के पास साइकिल तक नहीं है और गांव-गांव पैदल ही घूमना पड़ता है।

‘हम वर्कर्स हैं, वॉलंटियर्स नहीं’
फोर्ब्स ने नेशनल फेडरेशन ऑफ आशा वर्कर्स की महासचिव बीवी विजयलक्ष्मी के हवाले से कहा, “आशा सरकार की आंख और हाथ हैं। जमीनी स्तर से कोई भी जानकारी पाने के लिए या वहां की जानकारी देने के लिए अफसर पूरी तरह से इन वर्कर्स पर निर्भर हैं। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी से निपटने में बहुत अच्छा काम किया है। फिर भी, उन्हें भारत सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। उन्हें केवल पारिश्रमिक दिया जाता है और कोई निश्चित वेतन नहीं दिया जाता है। उनकी लंबे समय से लंबित मांग है कि उन्हें वर्कर्स के रूप में मान्यता दी जाए न कि वॉलंटियर्स के रूप में, क्योंकि तभी उन्हें अन्य सामाजिक सुरक्षा लाभ मिलेंगे।”

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