हां,मैं आदिवासी हूं और मुझे अपनी पहचान पर गर्व है। यह अहसास और आत्मनिरीक्षण की लंबी यात्रा रही है। बचपन से मैंने कभी अपने आप को अन्य बच्चों से अलग नहीं देखा या समझा। एक आदिवासी होने के बावजूद भी मैंने खुद को दूसरों के नजरिए से देखना शुरू किया- ‘आदिवासी लोग पिछड़े-गरीब-वनवासी हैं।’ ये वे शब्द हैं जिनके साथ मैं बड़ी हुई। मुझे खुद से घृणा होती थी और मेरा आत्मा सम्मान भी कम था। अपने अंडर-ग्रेजुएशन के लिए राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान में जाने के बाद मैंने पूरे भारत के छात्रों और शिक्षकों से मुलाकात की, जो मेरी पहचान के बारे में जानकर बहुत गर्व और खुशी महसूस कर रहे थे।
लंदन गई जहां लोग मेरी संस्कृति, परंपरा और भाषा के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे। मेरे बहुत से दोस्त जो महानगरों में बड़े हुए, जब उन्होंने मेरे गांव या बचपन की यादों के किस्से सुने तो उन्होंने अक्सर कहा कि उन्होंने कभी अपने गांव को नहीं देखा या उन्होंने कभी पेड़ से ताजे फल नहीं तोड़े। हमारे पूर्वजों ने हमारे गीतों, नृत्य, परंपराओं और अनुष्ठानों में हमारे लिए अपना ज्ञान रखा है और पीढ़ी दर पीढ़ी संचारित कर रहे हैं।
हमारी विचारधाराएं हमें इस दुनिया में प्रकृति और हर किसी का सम्मान करना सिखाती हैं। कोई किसी से नीचे या किसी से ऊपर नहीं है। मेरा मानना है कि आदिवासी युवाओं को अपनी पहचान पर गर्व करना होगा और हमारे अपने समुदायों को प्यार और सम्मान देना होगा, तभी दूसरे लोग भी हमारे समुदायों को प्यार और सम्मान देंगे। हमें अपनी संस्कृति की अच्छाई को अपनाते हुए वर्तमान समय के साथ आगे बढ़ना है, साथ ही हमें सवाल भी पूछना होगा और अपनी वर्जनाओं की भी आलोचना करनी होगी।
आदिवासी युवा अब हमारे समुदाय के संघर्षों-कहानियों को स्थानीय और वैश्विक प्लेटफार्मों में हमारे समुदायों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हममें से कई उच्च अध्ययन करने के लिए विदेश भी जा रहे है। हम दिकू समुदायों से कम नहीं हैं। आदिवासी युवा हमारे समुदायों की वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को स्थानांतरित करने की शक्ति रखते हैं। इंटरनेट के आने के बाद सूचना तक पहुंच आसान हो गई है। अब हम दुनिया के बाकी हिस्सों से जुड़कर यह समानताएं देख सकते है। पूरे विश्व में यह देखा गया है कि सदियों से मुख्य धारा के समाज में आदिवासी समुदायों पर अत्याचार किया गया है। फिर भी हम अपने अधिकार के लिए डटकर लड़ते आ रहे हैं और अपने आदिवासी होने पर गर्व करते हैं।
जिस प्रकार पांच उंगलियां बराबर नहीं होती, उसी प्रकार कोई भी पेशा अपनी आजीविका के लिए छोटा या बड़ा नहीं होता। मुट्ठी बांधने के लिए सब उंगलियां को एक जुट होना पड़ता है और इसी से शक्ति आती है, उसी प्रकार आजकल के आदिवासी युवा भी हर तबके के मिलेंगे। कोई किसान है तो कोई कलाकार। कुछ ग्रामीण और कुछ शहरी क्षेत्र में हैं लेकिन हर कोई हमारे समाज के उत्थान की दिशा में काम कर रहा है।
आजकल महिलाएं भी पढ़-लिखकर कदम से कदम मिलाकर काम कर अपने को हुनर को दिखा रही हैं। इस 26वें विश्व आदिवासी दिवस पर हम कुछ युवाओं को देखते हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में कई योगदान दिए हैं और आदिवासी साम्यवाद को सशक्त बना रहे हैं- ओडिशा के हो समुदाय से लिपिका सिंह दराई पहली आदिवासी महिला फिल्ममेकर हैं जिन्होंने चार नेशनल अवॉर्ड्स अपने फिल्मों के लिए प्राप्त किया है।