
शहर में रहने वाले लोग अक्सर कहते हैं कि देहाती कुछ भी बोल देती हैं…किसी को इग्नोर करना,उसे उसकी कमी की वजह से नीचा दिखाना उसके मेंटल हेल्थ के लिए कितना बुरा है…सोसाइटी भी काबिलियत के आधार पर हमें जज नहीं करती…उन्हें सिर्फ हमारी विकलांगता दिखाई देती है
मेरा नाम पूजा गाैतम है। 24 साल उम्र है मेरी। मैंने अपनी पूरी पढ़ाई सीढ़ियों से लड़ते हुए की है। स्कूल से लेकर बीटेक तक, दोनों हाथों के सहारे सीढ़ियां चढ़ती थी।बीटेक मैंने कानपुर के HBTU यानी हरकोर्ट बटलर टेक्निकल यूनिवर्सिटी से की है। यह उत्तर प्रदेश का टॉप इंजीनियरिंग कॉलेज में से एक है। इसके बावजूद मैं कॉलेज के चार साल याद नहीं करना चाहती। मैं अपनी जिंदगी के उस चैप्टर को भुला देना चाहती हूं। पहली बार ‘विकलांग’ होने का अहसास मुझे मेरे कॉलेज में ही हुआ।
शहर में रहने वाले लोग अक्सर कहते हैं कि देहाती कुछ भी बोल देते हैं। उनमें समझ और तमीज दोनों ही कम होती है। मैं उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला के पसनेर गांव से हूं। तीन-साढ़े तीन साल की थी तब पोलियो हो गया। घर में मम्मी-पापा तीन छोटे भाई, मैं और दीदी हैं। कभी किसी ने मुझे विकलांग होने की वजह से बुरा फील नहीं कराया।
गांव में मेरे दर्जन भर दोस्त हैं। वो हंसी-मजाक में कुछ बुरा नहीं कहते। मैंने सोचा था इंजीनियरिंग कॉलेज में भी मेरे नए दोस्त बनेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सच बोलूं तो सबसे खराब मुझे देश भर से चुने हुए उन भावी इंजीनियर्स के बीच ही लगा।विकलांगता हमारी सोसाइटी के लिए गाली बन गई है। लोग हमें अलग नजर से देखते हैं। हमारी तकलीफ का उन्हें अहसास नहीं होता। सरकार भी सिर्फ दिखावे के लिए योजना बनाती है, हकीकत में कुछ नहीं होता। मुझे ही देख लो पढ़-लिखकर 10 हजार की नौकरी के लिए तरस रही हूं।
अब एक सवाल करती हूं आप से… कभी प्यासे रहे हैं? पूरे दिन, पूरी रात और फिर एक और पूरा दिन। आप मर्द है न तो शायद महिलाओं के पाइंट ऑफ व्यू से पूछे गए मेरे इस सवाल को नहीं समझ पाएंगे। दरअसल हमारे देश में वॉशरूम की कमी है। इस वजह से महिलाएं ट्रैवल करते वक्त पानी नहीं पीती या कहे कि पानी पीने से बचती हैं। अब जब नॉर्मल महिला के साथ ऐसी दिक्कत है तो मेरी जैसी विकलांग महिला की क्या हालत होती होगी।
मैं तो स्कूल के दिनों में भी कम पानी पीती थी। आगे चलकर मुझे कई तरह के हेल्थ इश्यू हो गए। जिस स्कूल से मैंने 12वीं पास की, वहां वॉशरूम तो था ही नहीं, खेत में जाना होता था। आप एक बार सोच कर देखिए कि लड़का-लड़की सब एक साथ खेत में जा रहे हों। उस पर से मैं ट्राई साइकिल पर अपनी जरूरत के लिए खेत जा रही हूं। सीधी सड़क पर तो ट्राई साइकिल ढंग से चलती नहीं थी, खेत में मैं सैकड़ों बार गिर जाती थी। इसलिए अपनी प्यास कंट्रोल करती थी।
यह सब स्ट्रगल तो नॉर्मल है। असली संघर्ष तो इंजीनियरिंग की कोचिंग और कॉलेज में शुरू हुआ। मैं कानपुर के काकादेव में इंजीनियरिंग की तैयारी कर रही थी। दिल्ली के मुखर्जी नगर की तरह इस इलाके में भी हर तरफ कोचिंग सेंटर हैं।क्लास करने के लिए मुझे चौथे फ्लोर तक रोजाना जाना होता था। यहां तक पहुंचने के लिए मैं रोजाना हाथों से 50-52 सीढ़ियां चढ़ती-उतरती थी। एक बार क्लास खत्म होने के बाद सीढ़ियों से उतर रही थी। छुट्टी का समय था, अचानक से आती दो सौ लोगों के पैरों के बीच दब गई। सारे बच्चों को घर जाने की जल्दी थी, इसी जल्दी में वो यह देख नहीं पाए या आप कहें कि देखकर अनदेखा कर दिया कि मैं हाथों के सहारे उतर रही हूं।
इस बात की शिकायत मैंने कोचिंग के डायरेक्टर से की। उन्होंने कैजुअली कहा- पूजा या तो तुम सबसे पहले निकल जाया करो या सबसे आखिरी में। उस दिन से मैं सबसे आखिरी में निकलने लगी। आज इस बात को सोचकर लगता है कि मुझे कुचल देने वाले सभी लोगों से आगे हूं।इंजीनियरिंग के लिए मेरा एडमिशन HBTI में हुआ। अपने गांव की मैं पहली लड़की हूं जो यहां तक पहुंच पाई हूं। यह सोच उस समय मुझे अच्छा लग रहा था। ऐसा लगता था कि मुझे देखकर दूसरी लड़कियां भी पढ़ने के लिए प्रेरित होंगी। मेरी खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी। आपकाे जानकर आश्चर्य होगा कि इतने बड़े काॅलेज में एक रैंप नहीं है।
साल 2012 से 2016 तक मैंने अपनी पढ़ाई के दौरान इस बारे में सैकड़ों लेटर लिखे, कोई सुनवाई नहीं हुई। ट्राई साइकिल से कितनी बार गिरी हूं, याद नहीं। अक्सर मेरे सिर, हाथ में चोट आती रहती थी। इसके बावूजद वहां रैंप नहीं बन सका।काॅलेज लाइफ का संघर्ष कम नहीं हो रहा था। मैं एग्जामिनेशन हॉल में पानी तक लेकर नहीं जा पाती थी। चौथे फ्लोर पर एग्जाम्स होते थे। हाथ के सहारे चढ़ना पड़ता था। ऐसे में पानी की बोतल कैसे लेकर जाती। इस बीच अगर प्यास लगती तो साथ बैठने वाले पानी नहीं देते थे।
वहां मेरा कोई दोस्त नहीं था। या यूं कहें कि किसी ने मुझ से दोस्ती ही नहीं की। इंजीनियरिंग के चार साल मैंने बिना दोस्त के बिताए हैं। कई बार ऐसा होता था कि सब घूमने जा रहे होते थे और मैं अकेली बैठी रहती थी।ये सब मैं इसलिए नहीं बता रही कि आप सोचें और मुझ पर दया भाव दिखाएं। आप बस इतना समझें कि किसी को इग्नोर करना, उसे उसकी कमी की वजह से नीचा दिखाना उसके मेंटल हेल्थ के लिए कितना बुरा है। यही वजह है कि मैं अपने कॉलेज को याद ही नहीं करना चाहती।
ऐसा आपको लगता होगा, कॉलेज के लोगों का जैसा भी व्यवहार होगा, लेकिन नौकरी तो अच्छी लगी होगी। नौकरी को लेकर भी आपको एक किस्सा सुनाती हूं। साल 2016 में कॉलेज से जब प्लेसमेंट की बारी आई तो कई कंपनियों ने मेरा इंटरव्यू लिया। सब ने मुझे रिजेक्ट कर दिया। उस सब को मैं उनकी बड़ी कंपनी के लायक नहीं लगी।
कॉलेज में प्लेसमेंट के लिए बकायदा ग्रुप में चीटिंग होती थी। जाहिर सी बात है कि मैं बिना नकल सारे सवालों को हल नहीं कर पाती थी। नतीजा ये हुआ कि मैं सभी प्लेसमेंट्स में बैठी लेकिन नौकरी कहीं नहीं पा सकी।आप बताएं, सरकार ने मुझे इंजीनियर बनाने के लिए इतना पैसा खर्च किया। अगर मुझे नौकरी ही नहीं मिलेगी तो मैं देश को पे बैक कैसे करूंगी। मैं भी चाहती हूं कि सरकार और देश के लिए कुछ करूं। ऐसा मेरे प्रयास के बाद भी नहीं हो पा रहा है। मेरा कंट्रिब्यूशन कैसे तय होगा?
नौकरी थी नहीं इसलिए एसएससी की तैयारी में लग गई। मैं यूपीएससी का इम्तेहान देना चाहती थी। उसे दे नहीं सकती थी क्योंकि इन एग्जाम्स के सेंटर दूर पड़ते हैं, मुझे दूर ले जाकर एग्जाम दिलाने वाला कोई नहीं था। 2020 तक तो मैं ट्राई साइकिल से चलती थी। खुद ही चक्के को स्लाइड करके चलाना पड़ता था। ऑटो वाले व्हीलचेयर देखकर या तो बैठाते नहीं। जो बैठाने के लिए राजी होते वो 3-4 किलोमीटर का 500-700 मांगते थे। इतने पैसे में तो मेरे घर का एक महीने का राशन आ जाता था।
जब से मेरे पास बैटरी वाली ऑटोमेटेड साइकिल आई है तब से थोड़ा इंडिपेंटेड हुई हूं। यह मुझे एक एनजीओ ने दी है। जिस दिन मिला उस दिन लगा कि भगवान ने मुझे पैर दे वापस दे दिए हैं। 6-7 घंटे चार्ज होने पर 12-15 किलोमीटर चल जाती है। इसके सहारे एग्जाम देने में आसानी हो गई है।
आपको रिजेक्ट होने का दर्द पता है? एक समय तो मेरे लिए यह नॉर्मल बात हो गई थी। बार-बार रिजेक्ट होने की वजह से टूट चुकी थी। डिप्रेशन में जाने वाली ही थी कि मेरा एडमिशन जेएनयू में हो गया। 2019 में जेएनयू का इंट्रेंस दिया। इकोनॉमिक्स में मेरी पहली रैंक आई।
यहां आकर मुझे अपनी हिम्मत का अहसास हुआ। यहां का माहौल मेरे लिए पॉजिटिव था। बिना मतलब सहानुभूति दिखाने कोई नहीं आता था। कोई आपको बुरा नहीं फील कराता। देश भर में ऐसे ही माहौल की जरूरत है। बस इतना ही सेंसिटिव होने की जरूरत है।
यहां रैंप से लेकर क्लासरूम तक मेरे जैसे लोगों के लिए एक्सेसेबल बनाए गए हैं। यहां विकलांग लोगों की अलग कमेटी है जिसमें समय-समय पर मीटिंग होती है, हमें डिस्कशन में शामिल किया जाता है। हम अपनी प्रॉब्लम एडमिनिस्ट्रेशन से डिस्कस कर सकते हैं।
फिलहाल मैं बेरोजगार हूं। सरकारी और प्राइवेट नौकरी के लिए 2015 से प्रयास कर रही हूं। किसी ने 10 हजार की नौकरी भी नहीं दी। जब नौकरी नहीं मिली तो यूट्यूब पर पढ़ाना शुरू किया। इसके साथ जेएनयू कैंपस में ही हाउस हेल्पर और ऑफिस हेल्पर के बच्चों को कोचिंग पढ़ाने लगी। इससे खुद पर विश्वास बढ़ा, कॉन्फिडेंस बढ़ा।
आपको पता है कि सरकार विकलांगों के लिए बड़े-बड़े दावे करती हैं, उनके नियम में ही प्रॉब्लम है। इसे एक उदाहरण से समझाती हूं- जैसे किसी की एक-दो उंगली नहीं है, कोई वैशाखी के सहारे चलता है और कोई व्हीलचेयर पर है, तीनों विकलांगता एक ही कैटेगरी में आते हैं। विकलांगता मापने का कोई आधार नहीं। सरकार को चाहिए कि वो विकलांगता के लिए उपयोग में आने वाले उपकरणों के आधार पर कैटेगरी बनाए। जिसको जितनी सपोर्टिव उपकरणों की जरूरत पड़ रही है, उसे उतनी मदद मिले। उसी आधार पर जॉब और दूसरी सुविधा दी जाए।
सोसाइटी भी काबिलियत के आधार पर हमें जज नहीं करती। उन्हें सिर्फ हमारी विकलांगता दिखाई देती। यही वजह है की लोग हमें देखते ही चिढ़ जाते हैं। एक और किस्सा याद आ रहा है- मैं एक दिन जेएनयू के एक पार्क में बच्चों को पढ़ा रही थी। एक दीदी आईं, पूछने लगी कि तुम क्या-क्या पढ़ाती हो? मैंने कहा 10th तक सारे सब्जेक्ट और 12th का मैथ्स, फिजिक्स। कहने लगीं, नहीं, तुम इतना कुछ कैसे पढ़ा पाती होगी।
उनको भरोसा ही नहीं था कि मैं पढ़ा भी सकती हूं। मैंने कहा, पढ़ाने के लिए दिमाग का ठीक होना जरूरी है, पैर का नहीं। जैसे शरीर के सब हिस्से का अपना काम है वैसे ही हर इंसान की अपनी उपयोगिता है। यही समझने की जरूरत है।