प्रतिदान…..बंधु ! तू माने न मानें…यह जीवन तो सौगाती है…छल हो या प्रतिदान एक दिन…फल इसका लौट आती है

प्रेम का ऋण हो या नफरत का
एक दिन धरा चुकाती है।
छल हो या प्रदान एक दिन
फल इसका लौट आती है।
धरती से तो प्राणी मात्र का
बड़ा ही गहरा नाता है।
अन्न जल या सुधा गरल हो
एक दूजे से पाता है।
इसीलिए तो ऋतुऐं अक्सर
समय से आती जाती है
छल हो या प्रतिदान एक दिन
फल इसका लौटाती हैं।
किंतु मनुज की नई सोच ने
ऐसा ऐसा स्वांग रचा।
खोकर भी मौलिकता अपनी
सका न गुण और धर्म बचा।
जिसका यह परिणाम मनुजता
रोती और पछताती है।
छल हो या प्रतिदान एक दिन
फल इसका लौटाती है।
युगों युगों से कहती आती
जो बोओगे काटोगे।
आज की खोदी हर एक खाई
कल को तुम ही पाटोगे।
बंधु ! तू माने न मानें
यह जीवन तो सौगाती है।
छल हो या प्रतिदान एक दिन
फल इसका लौट आती है।

डॉ लक्ष्मीकान्त पण्डा रायपुर छत्तीसगढ़


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