गजेंद्र साहू….हाँ…!! प्रश्न तो लाजमी है और सार्थक भी कि मेरे एक वोट से क्या होगा ??? शायद इसी सोच का नतीजा रहा जो राजधानी रायपुर के रायपुर उत्तर विधानसभा क्षेत्र में सबसे कम मतदान हुआ जिसका प्रतिशत केवल 50% मात्र रहा जो कि लोकतंत्र के खलिहान पर सूखा घोषित होने के समान माना जाना चाहिए।
बात विचारणीय होने के साथ-साथ शर्मनाक भी है कि राजधानी जैसे क्षेत्र में जहाँ कि 80% से अधिक आबादी अपने आप को साक्षर होने का चोला पहनाती है वह अपने मत का प्रयोग नहीं करती जबकि इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्र के कुरुद विधानसभा में 80% मतदान हुआ जिस ग्रामीण क्षेत्रों को शहरी लोग निरक्षर के रूप में देखते है। सही मायनों में ये कहना बिलकुल ग़लत नहीं होगा कि ग्रामीण वासियों ने अपने मत का प्रयोग ही नहीं किया बल्कि उन निरक्षर लोगों ने साक्षरता का चोला पहने लोगो के गाल पर तमाचा दे मारा है ।
संविधान ने भारत की जनता को सर्वोच्च रखा है और उनको सबसे बड़ी ताक़त यह दी है कि वे हर पाँच वर्षों में अपने एक उँगली के सहारे तख़्ता पलट सकते है या फिर यदि उन्हें अपने हित में कार्य कर रही सरकार को पुनः चुनना है तो उसी उँगली से फिर सेवा का मौक़ा दे सकते है । यह शक्ति किसी राजनेता में नहीं कि अपनी सरकार बचा ले या दूसरे की सरकार गिरा दे पर या शक्ति जनता की मात्र एक उँगली पर निर्भर करती है। जिन लोगों ने अपने ताक़त का प्रयोग नहीं किया, अपने अधिकार का प्रयोग नहीं किया उन लोगों ने अपने ही नहीं बल्कि अपने परिवार, दोस्तों, शुभचिंतकों और उन करोड़ों ग़रीबों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है जो हर चुनाव में अपने लिए बेहतर जनप्रतिनिधि चुनकर अपने सुनहरे भविष्य की कल्पना करते हैं। उनका यह सोचना मेरे एक वोट से क्या फ़र्क़ पड़ेगा ?? उनको बताना चाहूँगा लोकतांत्रिक प्रकिया में कई प्रत्याशियों की हार केवल एक वोट से हुई है। उनसे पूछिए जाकर कि आपके एक वोट कि क़ीमत क्या है?? आपके एक वोट न डालने से कई बार ऐसे प्रतिनिधि भी सदन तक पहुँच जाते है जो जनसेवा के लिए नहीं अपितु राजनीतिक मेवा लिए इस क्षेत्र में आते हैं।
इस बार दीवाली की छुट्टियों के बीच मतदान की तारीख़ ने भी कई लोगों को उनके मताधिकार से दूर किया। लंबी छुट्टियाँ होने के कारण लोगों ने मत देने से ज़्यादा बेहतर परिवार के साथ बाहर क्वालिटी टाइम स्पेंट करने का मन बना लिया पर यह बड़े कारण के रूप में गिनती करने लायक़ तथ्य नहीं है क्यूँकि यदि मतदान की स्वेच्छा होती तो वे शायद ऐसा नहीं करते। छत्तीसगढ़ में कई क्षेत्रों में ख़ासकर राजधानी में इस बार मतदान के प्रति उत्साह और ऊर्जा ज़मीन पर धूल की तरह बिखरी पड़ी मिली। मेरा मानना है कि जिन लोगों ने अपने उँगली में स्याही नहीं लगवाई उनलोगों को आने वाली सरकार के कार्यों, योजनाओं और प्रक्रियाओं पर भी उँगली नहीं उठाना चाहिए और न ही वे इसके हक़दार हैं क्यूँकि जब आपको अपने मत की शक्ति दिखाने का समय मिला, अपने लिए बेहतर नेतृत्वकर्ता और प्रदेश को शीर्ष नेतृत्व के हाथों में सौंपने का अवसर दिया गया तब आपने अपने कदम पीछे ले लिए।
लोकतान्त्रिक यज्ञ में आहुति देने के मायने क्या है इस पर तो कई मिसालें दी जा सकती है पर मुझे लगता है कि भैंस के आगे बीन बजाने से कोई फ़ायदा नहीं है। बहरहाल इतना कहना चाहूँगा कि चुनाव प्रक्रिया भी समुद्र मंथन के समान है कि इससे निकलने वाली चीजों को आपको यथावत स्वीकारना होगा चाहे वह आपके पसंद की हो या न हो।