गोपी साहू: प्रेम,केवल ढाई अक्षर का छोटा-सा शब्द अपने आपमें कितने सारे अर्थ समेटे हुए है। प्रेम के विराट स्वरूप और उसके अनंत छोर तक फैले असीमित विस्तार सहित मानव जीवन के लिए उसकी अनिवार्यता का अंदाजा महज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस छोटे से शब्द की विस्तृत सत्ता तथा महिमा के संबंध में न जाने कितने ही कवियों, गीतकारों, शायरों, संत-महात्माओं द्वारा इतना कुछ कहा एवं लिखा जा चुका है कि अब कुछ और कहे या लिखे जाने की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती। फिर भी इसके महत्व एवं अस्तित्व के विषय में अनुभवी व्यक्तियों द्वारा अपने मत लिखे जाने का सिलसिला अनवरत जारी है। अभी भी ऐसी कमी महसूस की जा रही है कि प्रेम के संबंध में बहुत कुछ लिखा जाना शेष है, जो अनकहा रह गया है। मेरा तो यहाँ तक मानना है कि जब तक धरा पर मानव रहेगा, तब तक प्रेम का वजूद कायम रहेगा। किसी भी स्तर पर प्रेम की आवश्यकता एवं उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता।
प्रेम के संदर्भ में इतना ज्यादा सार्थक एवं अर्थपूर्ण लेखन किए जाने के बावजूद किसी संत या मनीषी द्वारा आज तक निर्विकार प्रेम की ऐसी कोई सार्वभौमिक या सर्वमान्य परिभाषा नहीं लिखी जा सकी है, जिसे सभी एकमत होकर स्वीकार कर सकें और न ही भविष्य में ऐसा होने की कोई संभावना है। ऐसा कहा जाता है कि प्रेम को अभिव्यक्त करने की सर्वोत्तम भाषा मौन है, क्योंकि प्रेम मानव मन का वह भाव है, जो कहने-सुनने के लिए नहीं बल्कि समझने के लिए होता है या उससे भी बढ़कर महसूस करने के लिए होता है। प्रेम ही मानव जीवन की नींव है। प्रेम के बिना सार्थक एवं सुखमय इंसानी जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। प्रेम की परिभाषा शब्दों की सहायता से संभव ही नहीं है।
सारे शब्दों के अर्थ जहां जाकर अर्थरहित हो जाते हैं, वहीं से प्रेम के बीज का प्रस्फुटन होता है। वहीं से प्रेम की परिभाषा आरंभ होती है। प्रेम का अर्थ शब्दों से परे है। प्रेम एक सुमधुर सुखद अहसास मात्र है। प्रेम की मादकता भरी खुशबू को केवल महसूस किया जा सकता है। प्रेम का अहसास अवर्णनीय है। इसलिए इस मधुर अहसास के विश्लेषण की भाषा को मौन कहा गया है। प्रेम को शब्द रूपी मोतियों की सहायता से भावना की डोर में पिरोया तो जा सकता है किंतु उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि जिसे परिभाषित किया जा सकता है, जिसकी व्याख्या की जा सकती है, वह चीज तो एक निश्चित दायरे में सिमटकर रह जाती है जबकि प्रेम तो सर्वत्र है। प्रेम के अभाव में जीवन कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं।
प्रेम इंसान की आत्मा में पलने वाला एक पवित्र भाव है। दिल में उठने वाली भावनाओं को आप बखूबी व्यक्त कर सकते हैं किंतु यदि आपके हृदय में किसी के प्रति प्रेम है तो आप उसे अभिव्यक्त कर ही नहीं सकते, क्योंकि यह एक अहसास है और अहसास बेजुबान होता है, उसकी कोई भाषा नहीं होती।
प्रेम में बहुत शक्ति होती है। इसकी सहायता से सब कुछ संभव है तभी तो प्यार की बेजुबान बोली जानवर भी बखूबी समझ लेते हैं।प्यार कब, क्यों, कहाँ, कैसे और किससे हो जाए, इस विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। इसके लिए पहले से कोई व्यक्ति, विशेष स्थान,सच्चा प्यार केवल देने और देते रहने में ही विश्वास करता है। जहाँ प्यार है, वहाँ समर्पण है। जहाँ समर्पण है, वहाँ अपनेपन की भावना है और जहाँ यह भावना रूपी उपजाऊ जमीन है, वहीं प्रेम का बीज अंकुरित होने की संभावना है
समय, परिस्थिति आदि कुछ भी निर्धारित नहीं है। जिसे प्यार जैसी दौलत मिल जाए उसका तो जीवन के प्रति नजरिया ही इंद्रधनुषी हो जाता है। उसे सारी सृष्टि बेहद खूबसूरत नजर आने लगती है। प्रेम के अनेक रूप हैं। बचपन में माता-पिता, भाई-बहनों का प्यार, स्कूल-कॉलेज में दोस्तों का प्यार, दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी का प्यार। प्रेम ही हमारी जीवन की आधारशिला है तभी तो मानव जीवन के आरंभ से ही धरती पर प्रेम की पवित्र निर्मल गंगा हमारे हर कदम के साथ बह रही है।
सच्चा प्यार केवल देने और देते रहने में ही विश्वास करता है। जहाँ प्यार है, वहाँ समर्पण है। जहाँ समर्पण है, वहाँ अपनेपन की भावना है और जहाँ यह भावना रूपी उपजाऊ जमीन है, वहीं प्रेम का बीज अंकुरित होने की संभावना है। जिस प्रकार सीने के लिए धड़कन जरूरी है, उसी तरह जीवन के लिए प्रेम आवश्यक है। तभी तो प्रेम केवल जोड़ने में विश्वास रखता है न कि तोड़ने में। सही मायने में सच्चा एवं परिपक्व प्रेम वह होता है, जो कि अपने प्रिय के साथ हर दुःख-सुख, धूप-छाँव, पीड़ा आदि में हर कदम सदैव साथ रहता है और अहसास कराता है कि मैं हर हाल में तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए हूँ। प्रेम को देखने-परखने के सबके नजरिए अलग हो सकते हैं, किंतु प्रेम केवल प्रेम ही है और प्रेम ही रहेगा क्योंकि अभिव्यक्ति का संपूर्ण कोष रिक्त हो जाने के बावजूद और अहसासों की पूर्णता पर पहुँचने के बाद भी प्रेम केवल प्रेम रहता है।