महिलाएं मेहंदी लगाकर सावन के इस मौसम में सखियों के संग झूला झूलने का आनंद लिया करती थी और वहीं, बरसती बूंदें मौसम का मजा और दोगुना कर देती थी, लेकिन अब ये परंपरा खत्म होती जा रही है..अब न तो झूले पड़ते हैं और न ही गीत सुनाई देते हैं

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गोपी साहू:सावन के झूलों ने मुझको बुलाया.. जैसे गीत सावन में झूला झूलने की परंपरा को याद दिलाते हैं। सावन मास की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन अब पेड़ों पर ना तो सावन के झूले पड़ते हैं और ना ही बाग-बगीचों में सखियों की रौनक होती है, जबकि एक जमाने में सावन लगते ही बाग-बगीचों में झूलों का आनंद लिया जाता था। विवाहित बेटियाें को ससुराल से बुलाया जाता था। वे मेहंदी लगाकर सावन के इस मौसम में सखियों के संग झूला झूलने का आनंद लिया करती थी और वहीं, बरसती बूंदें मौसम का मजा और दोगुना कर देती थी, लेकिन अब ये परंपरा खत्म होती जा रही है। अब न तो झूले पड़ते हैं और न ही गीत सुनाई देते हैं।

सत्यदर्शन लाइव से बातचीत में कुछ महिलाओं ने बताया कि पहले सावन का महीना आते ही पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे। पहला सावन मायके में ही मनाने की परंपरा रही है। ऐसे में बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और हाथों में मेहंदी रचा कर पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। महिलाएं सावनी गीत गाया करती थीं। अब जगह के अभाव में शहरों में तो कहीं झूले नहीं डाले जाते। घरों में जरूर कहीं-कहीं झूले मिलते हैं, लेकिन पेड़ों पर झूला डालकर झूलने का मजा ही अलग होता था।ऐसा ही गांव के पेड़ पर मोटी रस्सी में झूला डाल कर झूला झूलते थे और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। अब ऐसी जगह नहीं हैं, जहां झूला डालें। ऐसे में सावन के झूले भी यादें बन गए हैं।

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