जूस, लस्सी, शेक, शिकंजी, छाछ और न जाने कितने ही ऐसे ड्रिंक्स हैं जो हम गर्मियों में गले को तृप्त करने के लिए पी रहे हैं। गले को सुकून तब मिलता है जब इन ड्रिंक्स में बर्फ मिली हो। लेकिन ये बर्फ जानलेवा भी हो सकती है। खासकर सड़क किनारे ठेले से रेगुलर जूस या शेक पी रहे हैं तो बहुत चांसेज हैं कि गले में गंभीर इंफेक्शन हो जाए। डायरिया और पीलिया भी हो सकता है। दूषित बर्फ से टायफाइड, गैस्ट्रोएन्टराइटिस और कैंसर का भी खतरा है।
अभी जगह-जगह आसानी से बर्फ मिल जाती है। बर्फ की बड़ी-बड़ी सिल्लियों को हुक के जरिए उतारते हम सभी देखते हैं। इन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर ड्रिंक में मिलाया जाता है। लेकिन बर्फ के ये टुकड़े कितने हाइजीनिक हैं पता नहीं चलता। न तो आम आदमी जान पाता है कि बर्फ कैसी है और न ही वेंडरों को ही पता होता है। उनसे पूछिए तो बताएंगे कि वो तो बस जहां से बर्फ मिलती है, ले लेते हैं। बर्फ हाइजीनिक है या नहींं, उन्हें इसकी जानकारी नहीं होती।
बोलचाल की भाषा में कहें तो दो तरह की बर्फ होती है- पक्की बर्फ और कच्ची बर्फ। पक्की बर्फ में सिर्फ पानी होता है। लेकिन कच्ची बर्फ में पानी के साथ घुली हुई कार्बन डाई ऑक्साइड, घुली हुई ऑक्सीजन के साथ कई ऑर्गेनिक, इन-आर्गेनिक चीजें मिली होती हैं।
पक्की बर्फ पूरी तरह पारदर्शी होती है और ये आमतौर पर आइस क्यूब के रूप में इस्तेमाल होती है। पक्की बर्फ स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह नहीं है। लेकिन कच्ची बर्फ में कई सेडीमेंट्स मिले होते हैं इसलिए इसे खाने से बचना चाहिए।
इसे टेक्नीकली एडिबल आइस और इंडस्ट्रियल आइस के रूप में रखा जाता है। एडिबल आइस साफ पानी से बनी होती है। जैसे घरों में हम साफ पानी से आइस क्यूब बनाते हैं। लेकिन इंडस्ट्रियल आइस में किसी भी तरह के पानी का इस्तेमाल किया जाता है। तकलीफ की बात यह है कि वेंडर जो बर्फ के गोले बेचते हैं वो भी इंडस्ट्रियल आइस होती है। कई बार आइसक्रीम बनाने में बर्फ के मानकों का ध्यान नहीं रखा जाता। ऐसे में इन बर्फ में जो कचरा छुपा है या जो नुकसान पहुंचाने वाले बैक्टीरिया होते हैं वो आंखों से दिखाई नहीं देता। इसलिए पता नहीं चलता कि आइसक्रीम खाने लायक है या नहीं।
फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया यानी एफएसएसएआई के अनुसार, खाने की बर्फ और इंड्रस्ट्रियल यूज वाली बर्फ की पहचान की जानी चाहिए। यह किस रूप में बाजार में बिके, यह जिम्मेदारी फूड सेफ्टी ऑफिसर की होती है। एफएसएसएआई ने बताया है कि इंडस्ट्रियल आइस की पहचान के लिए इसमें नीले रंग का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। स्टैंडर्ड के अनुसार, इंडस्ट्रियल आइस में 10 पीपीएम (पार्ट पर मिलियन) तक इन्डिगो कार्मिन या ब्लू रंग मिलाया जा सकता है। इससे खाने वाली बर्फ से आसानी से अंतर दिख सकेगा। चतुर्भुज मीणा बताते हैं कि प्रैक्टिकल में स्टैंडर्ड का पालन नहीं होता। सड़क पर लाल-पीले, हरे रंगों में बिकने वाली बर्फ का गोला हाइजीनिक नहीं होता। बर्फ की सिल्लियां तोड़कर जो कुल्फी बनाने में इस्तेमाल की जाती है वो भी सेफ नहीं होती।
हेपेटाइटिस ए, ई और टाइफाइड भी हो सकता है
गन्ने का जूस या किसी दूसरे फल का जूस, वेंडर आमतौर पर इसमें आइस डालते हैं। ये आइस स्वच्छ पानी से बने होते हैं या नहीं, यह पता नहीं चल पाता। अगर इनमें इंडस्ट्रियल आइस यूज होता है तो ऐसे जूस पीने वाला व्यक्ति हेपेटाइटिस ए, ई, टायफाइड का शिकार हो सकता है। इनमें कोलिफॉर्म बैक्टीरिया हो सकते हैं जिसके चलते फूड बोर्न बीमारियां हो सकती हैं।
इंडस्ट्रियल आइस को कई रूप में इस्तेमाल में लाया जाता है। मछली बाजार में सालभर मछलियों को आइस बॉक्स में रखा जाता है। ये मछलियां दूसरे प्रदेशों से मंगाई जाती हैं। इन्हें ट्रांसपोर्ट करने में समय लगता है। मछलियों को प्रीजर्व करने के लिए बर्फ में फॉर्मलडिहाइड का इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल, फॉरमेलिन एक जहरीला केमिकल है जिसका इस्तेमाल डेड बॉडी को प्रीजर्व करने के लिए किया जाता है। यही फॉरमेलिन मछलियों को आइस में रखने में किया जाता है। ऐसी मछलियों को खाने पर शरीर में भी फॉरमेलिन पहुंचता है जिससे कैंसर हो सकता है।
फॉरमेलिन फॉरमलडिहाइड से निकलता है। अगर कोई सीधे फॉरमेलिन के संपर्क में आ जाए तो उसे खांसी, आंखों में जलन, गले और नाक में इंफेक्शन आदि हो सकता है। लंबे समय तक इसके संपर्क में रहे तो कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है।
बार-बार आइस क्यूब खाने का मन करता है तो सतर्क हो जाएं कई बार लोग आइस क्यूब खाते हैं। दांतों से इसे चबाते हैं। इससे जुड़े रिसर्च में कहा गया है कि जब कोई स्ट्रेस में होता है तो आइस क्यूब खाने की इच्छा होती है। यदि कोई प्रतिदिन 20 आइस क्यूब खाता है तो उन्हें दांतों से जुड़ी परेशानी हो सकती है। दांतों के एनामेल नष्ट हो जाते हैं। साथ ही दांतों में क्रैक पड़ जाते हैं। प्रेगनेंसी, माहवारी, ब्रेस्ट फीडिंग के दौरान महिलाओं में आइस क्यूब खाने की इच्छा बढ़ जाती है। टेक्नीकली इस मेडिकल कंडीशन को PICA कहा जाता है।