किसी विचार का मूल्य उसके उपयोग में छिपा हुआ रहता है…मक्के के छिलके से पर्यावरण बचाने की पहल

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‘मेरे भांजे की बहुत कम उम्र में कैंसर की वजह से मौत हो गई। इस हादसे ने पूरे परिवार को झकझोर दिया। डॉक्टर से पता चला कि उसे कैंसर हुआ था वह भी प्लास्टिक के कारण। इस बात ने मुझे प्लास्टिक का विकल्प ढूंढने के लिए प्रेरित किया। मैंने नौकरी छोड़कर कई सालों तक रिसर्च की। फाइनली मक्के के छिलके को विकल्प के तौर पर ढूंढ निकला।

इससे करीब 10 तरह के ऐसे प्रोडक्ट तैयार किए जो प्लास्टिक का बेहतर विकल्प बन सकते हैं। मैंने मक्के के छिलके से प्लेट, कप गिलास, चिप्स रैपर, चॉकलेट रैपर और साबुन रैपर भी बनाया है। ये दिखने में काफी खूबसूरत, टिकाऊ होने के साथ किफायती भी हैं।’ ये शब्द हैं मुजफ्फरपुर के नाज ओजैर के।

30 साल के नाज ओजैर बिहार के मुजफ्फरपुर के मनियारी क्षेत्र के मुरादपुर गांव के रहने वाले हैं। वे इंटर के बाद आगे की पढ़ाई करने हैदराबाद चले गए। जवाहरलाल नेहरू टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी से बीटेक और एमटेक की पढ़ाई की। वहीं, लेक्चरर के रूप में छह महीने काम भी किया। कई कंपनियों से ऑफर मिले जहां नौकरी की, लेकिन कुछ समय बाद गांव वापस आ गए।

नाज कहते हैं, ‘इनोवेशन का शौक मुझे बचपन से रहा है। मैंने प्लास्टिक का विकल्प तब ढूंढना शुरू किया, जब मेरे भांजे की मौत कैंसर की वजह से हुई। डॉक्टरों का कहना था कि 36 तरह के कैंसर प्लास्टिक के कारण होते हैं। उन्हीं में से एक मेरे भांजे को हुआ था। जिसे खोने के बाद सालों तक मेरा परिवार सदमे में था।

अगर हम प्लास्टिक की बात करें तो दिन शुरू होने से लेकर खत्म होने तक हम लोग इतनी बार इसका इस्तेमाल करते हैं कि हमें याद भी नहीं रहता। मैंने सोचा अगर प्लास्टिक का बेहतर विकल्प मिल जाएगा तो कई लोगों की जान बच जाएगी। इसकी वजह से पर्यावरण को नुकसान भी नहीं होगा।’

नाज ने विकल्प ढूंढने शुरू किए, लेकिन ये इतना आसान नहीं था। उनके कई एक्सपेरिमेंट फेल हुए। उन्होंने पपीते के छिलके, पपीते के पत्ते, अरबी के पत्ते, बांस के पत्ते और कई नेचुरल वेस्ट पर रिसर्च किए।

नाज कहते हैं, ‘मैंने सबसे पहले पपीते के छिलके पर एक्सपेरिमेंट किया जिसमें कई मायनों में सफल रहा। फिर कई और नेचुरल वेस्ट पर हाथ आजमाया, लेकिन बात नहीं बनी। कई प्रयासों के बाद मैंने अरबी के पत्तों से कई प्रोडक्ट बना लिए, लेकिन उसमें भी फेल हो गया। दरअसल अरबी के पत्तों वाली कप में चाय पीने पर पत्ते का भी टेस्ट आता था।

मैं रिसर्च करके काफी थक गया था। एक दिन मैं अपने एक दोस्त की शादी में गया। बारात गांव के खेतों से गुजर रही थी। मैंने देखा कुछ गाड़ियां मक्के के खेतों से जा रही है। मेरा ध्यान गया की मक्के के पेड़ से गाड़ी गुजरने पर मक्के के दाने तो खराब हो गए, लेकिन उसके छिलके को कुछ नहीं हुआ। मैं शादी से वापस आकर फिर से रिसर्च में जुड़ गया।’

नाज ने 2016 से मक्के की छिलके पर काम करना शुरू कर दिया। एक साल की लगातार मेहनत के बाद उन्होंने आखिरकार मक्के के छिलके से इको फ्रेंडली कटलरी सहित कई प्रोडक्ट्स बनाने का तरीका ढूंढ निकाला।

वे कहते हैं, ‘मैंने अपनी रिसर्च में सफल रहा। मैंने मक्के के छिलके से पत्तल, कप, गिलास, कटोरी के अलावा टॉफी, चिप्स, चॉकलेट, साबुन के रैपर और झोला सहित 10 प्रोडक्ट्स तैयार कर लिए। ये प्रोडक्ट्स 100% नेचुरल और बायोडिग्रेडेबल हैं । इन्हें इस्तेमाल के बाद पौधों में भी डाला जा सकता है, जहां ये खाद का काम करेंगे। अगर जानवर भी छिलके से बने बर्तन खा लेते हैं तो उन्हें कोई नुकसान नहीं होगा। इस तरह इसके इस्तेमाल से सेहत और प्रकृति दोनों को ही फायदा है।’

नाज अपने प्रोडक्ट को आपने नाम पेटेंट भी करा चुके हैं और अपने प्रोडक्ट को लोकल मार्केट में बेच रहे हैं। वैसे तो उनका प्रोडक्ट अगले महीने से पूरी तरह मार्केट में उपलब्ध होगा। फिलहाल उन्हें 5 लाख का ऑर्डर मिल चुका है। जिसे जल्द से जल्द पूरा कर कस्टमर तक पहुंचेंगे।

नाज बताते हैं, ‘मक्का जब पूरी तरह से खेत में तैयार हो जाता है। तब हम खेत के एक हिस्से को किसान से खरीद लेते हैं। मक्के के दाने को मार्केट में बेच दिया जाता और छिलके को अलग कर लिया जाता है। उसके बाद छिलके को अच्छे से साफ कर बारीक कर लिया जाता है। फिर उसमें पोटेशियम परमैगनेट मिलाया जाता है ताकि अगर किसी तरह के कीटाणु हैं तो खत्म हो जाएं। इसके बाद उन्हें कुछ समय के लिए छोड़ दिया जाता है।

जब तैयार मटेरियल में 5% नमी बची रहती है, तो उसमें नेचुरल डाई मिलाई जाती है। इस तरह मटेरियल तैयार हो जाता है। फिर इन्हें शेप देने का काम बचता है। अभी हमारा काम थोड़ा स्लो है, लेकिन जल्दी ही हाइड्रोलिक मशीन के इस्तेमाल से काम करेंगे तब प्रोडक्शन बड़े लेवल पर होगा।’

मक्के के छिलके को ऊपर और नीचे से एक-एक इंच काट देते। इससे यह तीन से चार इंच के चौड़े आकार में हो जाता। इसकी लंबाई छह इंच तक होती है। प्लेट बनाने में पांच से छह पत्ते लगते। एक प्लेट बनाने में तकरीबन 50 पैसे खर्च आता है।

वे बताते हैं, ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी पूसा, समस्तीपुर’ की साइंटिस्ट की एक टीम ने मेरे प्रोडक्ट को काफी सराहा है। उन्होंने इस शोध को आगे बढ़ाने को भी कहा। उनकी टीम मेरे घर आई थी, जहां उन लोगों ने मक्के के छिलके से बने प्लेट में खाना खाया, गिलास में पानी पिया और कप में चाय की चुस्की ली। उन्होंने मेरे प्रोडक्ट को लैब में चेक किया है।’

पूसा के डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट डॉ. मृत्युंजय का कहना है, ‘मक्के का छिलका प्लास्टिक का बेहतर विकल्प हो सकता है। यह ओजैर ने साबित कर दिया है। उसके द्वारा तैयार प्रोडक्ट साबित करता है कि मक्के का हर भाग उपयोगी है। इससे सैकड़ों प्रोडक्ट बन सकते हैं। उसके शोध से लाभ मिलेगा।’

पूसा के डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट डॉ. वीरेश कुमार का कहना है, ‘नाज का काम सराहनीय एवं प्रेरक है। उसके द्वारा तैयार सामान को न सिर्फ देखा, बल्कि उपयोग भी किया। उसके शोध से सभी को लाभ मिल सके, इसका वे प्रयास करेंगे।’

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