कुछ याद उन्हें भी कर लो…..छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह… शहीद वीर नारायण सिंह के परिवार से खास बातचीत…सोनाखान बेहद खूबसूरत है। प्राकृतिक रूप से समृद्ध है। यहाँ पशु-पक्षियों की आवाज किसी मधुर संगीत की तरह सुनाई देती हैं

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कमलेश यादव:छत्तीसगढ़ के बालौदाबाजार-भाटापारा जिले के कसडोल विकासखण्ड के ग्राम सोनाखान में अमर शहीद वीर नारायण सिंह का जन्म हुआ था।यहां पहुंचकर हमे अपने गौरवान्वित अतीत को करीब से देखने का मौका मिला।किताबों में हमने कई किस्से कहानियां पढ़ी सुनी है लेकिन हमारे टीम के लिए यह दिन इसलिए खास रहा, हमने शहीद वीर नारायण सिंह के परिवार के साथ समय बिताया।राजेन्द्र सिंह दीवान सातवी पीढ़ी के वंशज है।उन्होंने कई रोचक जानकारी हमें दिया जिसे हमने कभी पढ़ा ही नही।वास्तव में अभी भी काफी कुछ शोध का विषय हैं जिसे इतिहासकारो को संज्ञान में लेना चाहिए।यह स्थान बेहद खूबसूरत है। प्राकृतिक रूप से समृद्ध है। यहाँ पशु-पक्षियों की आवाज किसी मधुर संगीत की तरह सुनाई देती हैं।

यहाँ के घने वन,शांत,शीतल और सौम्य वातावरण सबका मन मोह लेता है। जो एक बार यहाँ आ जाता है, वह बार-बार यहाँ आना चाहता है।खुद के बनाई सुविधाजनक चारदिवारी से बाहर निकल कर चीजों को सूक्ष्मता से सीखना-समझना बहुत जरूरी है, उस जादू को महसूस करने के लिए। जीवन का हर आम दिन हमें तैयार करता है उस रोमांचक अनुभव के लिए। हमें एक खोजकर्ता की तरह हर दिन की शुरुआत करना चाहिए। नई जगहों पर जाने पर अगर हमारा ऐसा नजरिया रहा तो शायद हम उस यात्रा, लम्हों और दृश्यों को सही अर्थों में अनुभव कर सकें।

वीर नारायण सिंह का जन्म सन् 1795 में सोनाखान के जमींदार रामसाय के घर हुआ था। वे बिंझवार आदिवासी समुदाय के थे, उनके पिता ने 1818-19 के दौरान अंग्रेजों तथा भोंसले राजाओं के विरुद्ध तलवार उठाई लेकिन कैप्टन मैक्सन ने विद्रोह को दबा दिया। इसके बाद भी बिंझवार आदिवासियों के सामर्थ्य और संगठित शक्ति के कारण जमींदार रामसाय का सोनाखान क्षेत्र में दबदबा बना रहा, जिसके चलते अंग्रेजों ने उनसे संधि कर ली थी। देशभक्ति और निडरता वीर नारायण सिंह को पिता से विरासत में मिली थी। पिता की मृत्यु के बाद 1830 में वे सोनाखान के जमींदार बने।

स्वभाव से परोपकारी, न्यायप्रिय तथा कर्मठ वीर नारायण जल्द ही लोगों के प्रिय जननायक बन गए। 1854 में अंग्रेजों ने नए ढंग से कर (Tax)  लागू किये, इसे जनविरोधी बताते हुए वीर नारायण सिंह ने इसका भरसक विरोध किया। इससे रायपुर के तात्कालीन डिप्टी कमिश्नर इलियट उनके घोर विरोधी हो गए ।

1856 में छत्तीसगढ़ में भयानक सूखा पड़ा था, अकाल और अंग्रेजों द्वारा लागू किए कानून के कारण प्रांत वासी भुखमरी का शिकार हो रहे थे। कसडोल के व्यापारी माखन का गोदाम अन्न से भरा था। वीर नारायण ने उससे अनाज गरीबों में बांटने का आग्रह किया लेकिन वह तैयार नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने माखन के गोदाम के ताले तुड़वा दिए और अनाज निकाल ग्रामीणों में बंटवा दिया। उनके इस कदम से नाराज ब्रिटिश शासन ने उन्हें 24 अक्टूबर 1856 में संबलपुर से गिरफ्तार कर रायपुर जेल में बंद कर दिया।

1857 में जब स्वतंत्रता की लड़ाई तेज हुई तो प्रांत के लोगों ने जेल में बंद वीर नारायण को ही अपना नेता मान लिया और समर में शामिल हो गए। उन्होंने अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ बगावत करने की ठान ली थी। नाना साहब द्वारा उसकी सूचना रोटी और कमल के माध्यम से देश भर की सैनिक छावनियों में भेजी जा रही थी। यह सूचना जब रायपुर पहुँची, तो सैनिकों ने कुछ देशभक्त जेलकर्मियों के सहयोग से कारागार से बाहर तक एक गुप्त सुरंग बनायी और नारायण सिंह को मुक्त करा लिया।

जेल से मुक्त होकर वीर नारायण सिंह ने 500 सैनिकों की एक सेना गठित की और 20 अगस्त, 1857 को सोनाखान में स्वतन्त्रता का बिगुल बजा दिया। इलियट ने स्मिथ नामक सेनापति के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना भेज दी। पर नारायण सिंह ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। उन्होंने सोनाखान से अचानक बाहर निकल कर ऐसा धावा बोला कि अंग्रेजी सेना को भागते भी नहीं बना; पर दुर्भाग्यवश सोनाखान के आसपास के अनेक जमींदार अंग्रेजों से मिल गये। इस कारण नारायण सिंह को पीछे हटकर एक पहाड़ी की शरण में जाना पड़ा। अंग्रेजों ने सोनाखान में घुसकर पूरे नगर को आग लगा दी।

नारायण सिंह में जब तक शक्ति और सामर्थ्य रही, वे छापामार प्रणाली से अंग्रेजों को परेशान करते रहे। काफी समय तक यह गुरिल्ला युद्ध चलता रहा; पर आसपास के जमींदारों की गद्दारी से नारायण सिंह फिर पकड़े गये और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। कैसा आश्चर्य कि जनता ने जिसे राजा के रूप में अपने हृदय मन्दिर में बसाया, उस पर राजद्रोह का मुकदमा ? पर अंग्रेजी शासन में न्याय का नाटक ऐसे ही होता था।

मुकदमे में वीर नारायण सिंह को मृत्युदंड दिया गया। 10 दिसंबर 1857 को ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सरेआम तोप से उड़ा दिया, स्वातंत्र्य प्राप्ति के बाद वहाँ ‘जय स्तम्भ’ बनाया गया, जो आज भी छत्तीसगढ़ के उस वीर सपूत की याद दिलाता है।

असल में बहुत कम लोग ही वास्तव में उस जगह का असली लुत्फ उठा पाते हैं। बहुत से तो ऐसे भी होते हैं जो मात्र एक-दो तस्वीरें और सेल्फी लेकर मात्र अपनी भौतिक उपस्थिति ही दर्ज करा पाते हैं। उस खास जगह पर होते हुए भी हम कई बार बस उतना ही देख पा रहे होते हैं जितना यात्रा से पहले हमने कल्पना की होती है या फिर कहीं थोड़ा बहुत पढ़ कर अपने मस्तिष्क में उसकी कोई निश्चित छवि बना रखी होती है। जबकि जब तक उस जगह के वातावरण को हम करीब से महसूस नहीं कर पाते, वहां के जन जीवन और पर्यावरण से जुड़ नहीं पाते, हमारा वहां जाना मात्र एक यात्रा होगी।

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