त्याग,समर्पण और संघर्ष का नाम है कैलाश सत्यार्थी…बच्चों को गुलामी से निकाला और पाया शांति का नोबल

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5 साल की उम्र में मैं पहली बार स्कूल गया। पहले ही दिन मुझे मेरी उम्र का एक बच्चा दिखा, जो स्कूल के बाहर ही बैठा था और मेरे जूतों को देख रहा था। उसके हाथों में जूते पॉलिस करने का सामान था। उसे देखकर मुझे बहुत अजीब लगा। स्कूल टीचर से मेरा पहला सवाल था, मैम वह लड़का बाहर क्यों बैठा है? उन्होंने जवाब दिया, गरीब बच्चों का ऐसे काम करना बहुत सामान्य सी घटना है। एक दिन मैंने उस लड़के के पिता से यही सवाल पूछा।

उन्होंने जवाब दिया, बच्चे के पिता और दादा भी जूते पॉलिश करते थे। बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, आपको नहीं मालूम कि आप जैसे लोग स्कूल जाने के लिए पैदा लेते हैं और हमारे जैसे लोग काम करने के लिए। स्कूल खत्म हुआ, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग ग्रेजुएट हुआ। लेकिन, ये सवाल मेरे दिमाग में बना रहा।

नौकरी करने लगा, लेकिन दिमाग इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूमता रहता। अंत में मैंने नौकरी छोड़ दी। साल 1980 में ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की स्थापना की और बच्चों के लिए फुल टाइम काम करना शुरू कर दिया, जो आज तक जारी है।

ये जवाब साल 2014 में नोबल शांति पुरस्कार जीते कैलाश  सत्यार्थी ने यूनेस्को की तरफ से मैरी डे सौसा के सवाल पर दिया था।

सत्यार्थी शुरुआती दिनों में चाइल्ड लेबर के खिलाफ आर्टिकल लिखने लगे और उसका पैम्फलेट छपवाकर बाजार में लोगों को बांटते थे। उनका मानना था कि शिक्षा और आजादी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 6 साल तक सत्यार्थी लगातार काम करते रहे। साल 1986 में चाइल्ड लेबर के खिलाफ भारत में कानून बना। हालांकि, ये भी परफेक्ट नहीं था। ऐसे में सत्यार्थी का संघर्ष जारी रहा।

लोगों ने किया अपमानित
सत्यार्थी का कहना है कि जब फैक्ट्रियों-कारखानों या दूसरी जगह काम कर रहे बच्चों को मुक्त कराने के लिए प्रयास करने लगे और उन्हें स्कूल जाने के लिए कहने लगे तो लोगों ने उन्हें अपमानित करना शुरू कर दिया। मुझे कहा गया कि बच्चे गंदे हैं। उनका कोई ध्यान नहीं रखता। उन्हें स्कूल में बाकी बच्चों के साथ नहीं रखा जा सकता है।

सत्यार्थी के वेबसाइट के मुताबिक, बाल मजदूरों को छुड़ाने के दौरान उनपर कई बार जानलेवा हमला हुआ है। इसमें साल 2004 में यूपी के मेरठ में ग्रेट रोमन सर्कस से बाल कलाकारों को  छुड़ाने के दौरान वह गंभीर रूप से घायल हुए थे। वहीं, मार्च 2011 में दिल्ली की एक कपड़ा फैक्ट्री पर बचपन बचाओ आंदोलन की टीम ने छापा मारा था, जिसके बाद सत्यार्थी पर हमला हो गया था।

सत्यार्थी ने इस मुद्दे पर लीगल फिल्ड में काम कर रहे अपने दोस्तों से बात की। उनका कहना था कि मुख्य वजह ये है कि संविधान में शिक्षा की अनिवार्यता को लेकर किसी तरह का कानून नहीं है। ऐसे में साल 2001 में एक बड़ा कैंपेन चलाया गया, जिसके बाद संविधान में 86वां संसोधन हुआ और शिक्षा एक मानव अधिकार बना।

शिक्षा के अधिकार को ग्लोबल मुद्दा बनने में दो दशक लग गए। सत्यार्थी का कहना है कि ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की शुरुआत के पहले संयुक्त राष्ट्र के किसी अंग जैसे अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन (ILO), संयुक्त राष्ट्र बाल निधि (UNICEF) या फिर वर्ल्ड बैंक ने भी बाल मजदूरी पर किसी तरह  का काम नहीं किया था।

सत्यार्थी यहीं से ग्लोबल स्तर पर देखने लगे। पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश का अध्ययन किया और पाया कि बंधुआ बाल मजदूरी की स्थिति वहां भी ऐसी ही है। इस बीच वह जेनेवा में होने वाला मानव अधिकार आयोग के कार्यक्रम में भाग लेने लगे और बाल मजदूरी के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून लाने की दिशा में काम शुरू कर दिए।

कैलाश सत्यार्थी को नोबल शांति पुरस्कार देते समय नोबल समिति ने एक बयान जारी करते हुए कहा था कि ये पुरस्कार दुनिया के सभी बच्चों की शिक्षा और उनके दमन के खिलाफ किए गए उनके संघर्ष के लिए दिया जा रहा है। बच्चों का आर्थिक-मानसिक शोषण बंद होना चाहिए और हर बच्चे को स्कूल भेजने की व्यवस्था करनी चाहिए। दुनिया की आबादी की 60% की उम्र 25 साल से कम है।

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