गुरुदेव जिसको आज पूरी दुनिया कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता के रूप में जानती है…जिसकी दो रचनाएं बनी दो देशों का राष्‍ट्रगान और जिसने बापू को कहा था महात्‍मा

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गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर, ये वो नाम है जिसको आज पूरी दुनिया कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता के रूप में जानती है। उन्‍हें बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाला युगदृष्टा भी माना जाता है। वे एशिया के पहले ऐसे व्‍यक्ति थे जिन्‍हें नोबेल पुरस्कार सम्मानित किया गया था। आपको जानकर हैरत होगी कि भारत के राष्‍ट्रगान ‘जन गण मन’ के अलावा बांग्‍लादेश का राष्‍ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्ला’ भी उनके ही द्वारा रचित है। गुरुदेव ने अपने जीवनकाल में करीब 2,230 गीतों की रचना की। उनका दिया रवींद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। इस तरह से गुरुदेव दुनिया के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी रचनाएं दो देशों के लिए राष्ट्रगान बनी।

गुरुदेव के लेखन से जुड़ाव को इस तरह से देखा जा सकता है कि उन्होंने महज आठ वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता लिखी थी और सोलह वर्ष की उम्र में उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई थी। उनके द्वारा रचित विशाल संग्रह में सुप्रसिद्ध गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। लेखन की किसी भी विधा को उन्‍होंने नहीं छोड़ा। उनकी प्रकाशित कृतियों में गीतांजलि, गीताली, गीतिमाल्य, कथाओ कहानी, शिशु, भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था। टैगोर ज्यादातर अपनी पद्य कविताओं के लिए जाने जाते हैं। टैगोर को बंगाली भाषा के संस्करण की उत्पत्ति का श्रेय भी दिया जाता है। टैगोर ने इतिहास, भाषाविज्ञान और आध्यात्मिकता से जुड़ी भी कई किताबें लिखी हैं।

उनका जन्‍म 7 मई 1861 को तत्‍कालीन कलकत्‍ता के जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी में हुआ था। 1878 वो लंदन पढ़ने के लिए चले गए थे। वो बेरिस्‍टर बनना चाहते थे इसलिए उन्‍होंने लंदन की यूनिवर्सिटी में एडमिशन तो लिया लेकिन बिना डिग्री लिए 1880 में वापस भारत लौट आए। वर्ष 1883 में उनका विवाह हुआ मृणालिनी देवी के साथ हो गया। बेहद कम उम्र में ही अपनी मां को खो देने वाले वाले टैगोर के पिता यात्रा करने के शौकीन थे। यही वजह थी कि उनका लालन पालन नौकरों की जिम्‍मेदारी थी। उन्‍हें घर ही पर ही संगीत की शिक्षा देने के लिए टीचर मुहैया करवाए गए थे। उनके बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ एक दार्शनिक और कवि थे एवं दूसरे भाई सत्येंद्रनाथ कुलीन और पूर्व में सभी यूरोपीय सिविल सेवा के लिए पहले भारतीय नियुक्त व्यक्ति थे। एक भाई ज्योतिरिंद्रनाथ, संगीतकार और नाटककार थे एवं इनकी बहिन स्वर्णकुमारी उपन्यासकार थीं।

ग्यारह वर्ष की उम्र में उपनयन संस्कार के बाद टैगोर ने अपने पिता के साथ कई जगहों की यात्रा की। इसके अलावा उन्‍होंने इस दौरान कई तरह की किताबें हासिल कर ज्ञान अर्जित किया। 1873 में अमृतसर में वे होने वाली सुप्रभात गुरबानी और नानक बनी ने उनका मन मोह लिया था। उन्होंने 1912 में प्रकाशित अपनी एक किताब मेरी यादें में इसका जिक्र भी किया है। अपने जीवन के अंतिम दिनों में गुरुदेव का रुझान चित्रकारी की तरफ हो गया था।

उनके संक्षिप्‍त राजनीतिक जीवन की बात करें तो टैगोर और महात्मा गांधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। बापू जहां राष्ट्रवाद को प्रमुखता देते थे वहीं टैगोर मानवता को श्रेष्‍ठ दर्जा देते थे। हालांकि दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गांधी को महात्‍मा की उपाधि भी दी थी। जब शांतिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था बापू ने 60 हजार रुपये देकर मदद की की थी। 7 अगस्त 1941 उन्‍होंने अंतिम सांस ली थी। इलाज के लिए जब उन्हें शांतिनिकेतन से कलकत्‍ता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने वहां बन रहे एक पावर हाउस की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि नए पावर हाउस का निर्माण हो रहा है। तब उन्‍होंने कहा था कि हां अब पुराना आलोक चला जाएगा और नए का आगमन होगा।

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