“रोका-छेका”आवारा पशु प्रबंधन में,देश के लिए नजीर बनने वाली पहल…नरवा,गरवा,घुरवा बाड़ी और गोठान योजना की अगली कड़ी है,रोका-छेका…इन योजनाओं की सफलता के लिए,जनता का विश्वास जीतना जरूरी, जबकि इन्हें नौकरशाही का नया चारागाह बनने से रोकना,ये होगी सरकार की असली चुनौती…आवारा पशुओं के कारण कई राज्यों की खेती पड़ी खतरे में,कर सकतेे हैं छत्तीसगढ़ माडल का अनुकरण…

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डॉ.राजाराम त्रिपाठी:हाल ही में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जी ने प्रदेश की जनता से आवाहन किया कि प्रदेश के पालतू पशुओं के मालिक अपने पशुओं को खुला न छोड़ें, इसे उन्होंने छत्तीसगढ़ की पारंपरिक प्रथा “रोका-छेका” से जोड़ते हुए एक अभियान के रूप में चलाने तथा जन भागीदारी की अपील भी की।हालांकि विगत कुछ दशकों में सरकारों द्वारा समय-समय पर अपने राजनैतिक स्वार्थ तथा निहितार्थो पर समाज व जन कल्याण का चमकदार मुलम्मा चढाकर किए गए जन आवाहनों के पीछे छिपे मर्म को अब धीरे-धीरे अबूझ जनता भी बूझने लगी है,इसलिए आजकल सरकारों की तथा नेताओं के इस तरह के तथाकथित मार्मिक,हार्दिक अपीलों,जन आवाहनों से अब ना तो जनता प्रभावित होती है और ना ही मैं ।

किंतु कई मायनों में “रोका-छेका” की भूपेश बघेल की यह हालिया अपील,जनआवाहनों के नाम पर की जा रही रोजमर्रा की राजनैतिक बाजीगरियों से अलग हटकर है, इतना ही नहीं,यह पहल पूरे देश मैं आवारा पशुओं के कारण बुरी तरह से परेशान अन्य राज्यों के लिए भी प्रभावी समाधान की एक अनुकरणीय पहल बन सकती है।विशेष रूप से उत्तर प्रदेश,बिहार,मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य जहां कि आवारा पशु न केवल यातायात में बड़े बाधक साबित हो रहे हैं,बल्कि वहां की खैती के अब तक के सबसे बड़े बाधक तत्व बन गए हैं,और किसानों के सबसे बड़े सिरदर्द साबित हुए हैं।

यहां एक दिलचस्प वाकया बयां करना चाहूंगा। कुछ साल पहले की बात है मेरे एक मित्र यूरोप से आए रायपुर एयरपोर्ट से उन्हें लेकर जैसे ही हम बस्तर के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग पर पहुंची गाय तथा भैंसों का बड़ा झुंड बीच सड़क पर इत्मीनान बैठा हुआ था। उसे देखते ही मेरे मित्र जो पहली बार भारत आए थे,सीट से उछल पड़े,।उन्होंने गाड़ी रुक वाई और बैग से बड़ा सा कैमरा निकालकर फोटो खींचना चालू कर दिया।चूंकि,वहां के गाय बैलों में और यहां की गाय बैलों में मैंने कोई विशेष फर्क नहीं देखा था, इसलिए मैंने उनसे पूछा,कि ऐसी क्या विशेष बात देखी उन्होंने,हमारे इन छत्तीसगढ़िया जानवरों में। उन्होंने कहा जानवरों में तो कोई विशेष अंतर नहीं है लेकिन मैंने अपने जीवन में इस तरह से राष्ट्रीय राजमार्ग पर कब्जाए हुए जानवरों का झुंड कभी नहीं देखा था। मैं यह फोटो अपने देश ले जा कर दिखाऊंगा तो बड़े अचरज की बात होगी। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि,चिंता न करो मित्र,अभी आगे कोंडागांव पहुंचते तक तुम्हें ऐसे सैकड़ों दृश्य दिखाई देंगे,जहां जानवर आराम से सड़क पर बैठकें करते,चैन से पगुराते नजर आएंगे,और बेचारी गाड़ियां अपनी बीन बजाती हुई किनारे से निकल जाएंगी।

उन्होंने फिर जिज्ञासा कि ऐसे में तो कई जानवर वाहनों से टकराकर मर जाते होंगे,तो इनके मालिक किसानों का नुकसान नहीं होता होगा।मैंने बताया कि दरअसल हमारे देश के लोग बड़े धर्म भीरु होते हैं,तथा गौ हत्या के पाप से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है,इसलिए सड़कों पर गाड़ी चलाने वाले यथासंभव,हर हाल में इन जानवरों को बचाकर ही चलते हैं,फिर भी इन जानवरों से जाने-अनजाने में टकरा कर हजारों लोग इस सड़क पर हर साल मारे जाते हैं,इसीलिए इसे हम खूनी सड़क भी कहते हैं,,और भाई कभी कभार दुर्भाग्य वश अगर किसी वाहन से टकराने से किसी जानवर को चोट लग गई अथवा जानवर मर गया तो आसपास के गांवों के जागरूक युवा मंडली आकर उस रास्ते से गुजरने वाली सभी गाड़ियों से उसका मूल्य,मुआवजा,और अपनी मंडली का उचित पारश्रामिक आदि भी वसूल लेते हैं,कई बार ये अति उत्साहित वालिंटियर गौ वंश, महिष वंश को कष्ट पहुंचाने की ठीक-ठाक सजा,बिना अपील बिना वकील,मौके पर ही त्वरित फैसले के आधार पर दे देते हैं।

यह सब सुनने में सहज लग सकता है किंतु वास्तव में यह प्रक्रिया कितनी कष्टदायी होती है, इसे तो केवल इस चक्रव्यूह में फंसा अभागा भुक्तभोगी ही जानता है।जबकि, इन आवारा पशुओं के कारण पूरे देश में दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या,कोरोना कोविड-9 महामारी से मरने वालों की संख्या से भी बहुत ज्यादा है।भारत सरकार के सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा जारी नवीनतम् आंकड़ों के अनुसार देश में सड़क दुर्घटनाओं में वर्ष 2018 में 1,51,471 लोग मारे गए, जबकि 2017 में 1,47,913 लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए थे, और इनमें 70% से अधिक दुर्घटनाएं सड़क पर अचानक अथवा पूर्व से आए पशुओं के कारण होती है।

आवारा जानवरों ने पिछले कुछ सालों में किसानों की खड़ी फसलों को इतना ज्यादा नुकसान पहुंचाया है,कि अब वहां के किसान दूध के जले हैं,तो छाछ को भी फूंक कर पी रहे हैं,और अब इन आवारा पशुओं के भय से लाखों लाख एकड़ भूमि बंजर पड़ी है।हमें यह समझना होगा कि बड़े तथा सक्षम किसान तो अपने खेतों की चारों ओर कटीले बाड़ अथवा दीवार बना कर इनसे अपनी फसल बचा भी सकते हैं,लेकिन 2 एकड़ 3 एकड़ के छोटे तथा गरीब किसान,जो कि अपने खेतों के खाद बीज दवाई के लिए भी सहकारी बैंकों तथा साहूकारों पर निर्भर रहते हैं,वह इन खेतों की बाड़ बनाने,कंटीले तार आदि लगाने हेतु लाखों रुपए कहां से लाएंगे।यही कारण है कि छोटे किसान अन्यान्य कारणों के साथ ही आवारा पशुओं के डर से भी खेती से विमुख हो रहे हैं। हमें यह भी याद रखना होगा इस देश में 84% किसान ऐसे हैं, जो अभी भी निर्धन हैं, व 4 एकड़ अथवा उससे कम जमीन पर खेती करते हैं।

‘ रोका- छेका’! हालांकि विशुद्ध छत्तीसगढ़ी शब्द होने के बावजूद इसका अर्थ स्पष्ट है,किंतु छत्तीसगढ़ के बाहर के लोगों के लिए यह छत्तीसगढी शब्द कुछ नया हो सकता है,तथा छत्तीसगढ़ के लोग भी इस शब्द तथा शब्दार्थ से भले ही परिचित हों,पर सदियों से चली आ रही अपनी इस अनूठी परंपरा,इसकी मूल अवधारणा, इसके स्वरूप तथा इसकी उपयोगिता को लगभग भुला चुके हैं। दरअसल धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल धान है।और मानसून के आने के साथ ही इसकी बुवाई शुरू हो जाती है। पुराने दिनों में मानसून आने,व धान की फसल की बुवाई के साथ ही गांवों में मुनादी करा दी जाती थी कि,अब हर पशु मालिक अपने पशुओं को नियंत्रित करके रखें,उन्हें स्वयं चराए, उनकी देखभाल करें, तथा खुला न छोड़ें अन्यथा स्थानीय परंपराओं के अनुरूप दोषी को दंड दिया जाता था।हमें यह समझना होगा कि आजकल चारों ओर दिन रात छुट्टा घूमते रहे दिखाई दे रहे आवारा पशुओं का कोई दोष नहीं है,क्योंकि आवारा पशु ,बेनामी पशु अथवा बिना मालिक का जानवर जैसा,दरअसल कुछ होता ही नहीं।हर आवारा कहे जाने वाले हर जानवर का भी कोई न कोई मालिक अवश्य होता है,जिसका उस पशु से नाता केवल उससे मिलने वाले लाभ तक ही सीमित रहता है ,और उस जानवर के प्रति उत्तरदायित्व को लेकर यह मालिक प्राय: अदृश्य ही रहता है,और उस जानवर से लाभ लेने के वक्त ही प्रकट होता है तथा अपनी जिम्मेदारियों के प्रति पूरी तरह से लापरवाह होता है।

पहले हमारे गांवों में सामाजिक बंधन तथा सामाजिक नियमों के अनुपालन की व्यवस्था बहुत मजबूत थी। छोटा ,बड़ा कोई भी हो हर किसी को गांव की तयसुदा परंपराओं तथा सामाजिक अनुशासन का पालन अनिवार्यतः करना पड़ता था।यह व्यवस्था तथा इसका संचालन का भार उन दिनों गांव के मुखिया,पटेल,गांयता, पेरमा,पुजारी,अठपहरिया तथा कोतवाल आदि के कंधों पर होता था।कालांतर में शासन के विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया में ग्राम पंचायतों का गठन किया गया। गांवों के परंपरागत प्रमुख पटेल,गांयता,पुजारी आदि हाशिए पर चले गए।पंच सरपंच जनपद सदस्य आदि नए प्रशासनिक मुखियाओं का जन्म हुआ।

इस प्रक्रिया में शासन व लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के साथ ही भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण पर्याप्त रूप से हुआ।फलत: ग्राम पंचायतों से जनता का विश्वास धीरे-धीरे उठने लगा।ग्राम पंचायतों के गठन में राजनीतिक पार्टियों के सक्रिय हस्तक्षेप ने कोढ में खाज का कार्य किया।फलत: गांव मोहल्ले तथा परिवारों के सदस्य भी अलग अलग राजनीतिक पार्टियों के खेमों में बंट गए।इससे गांव की एकता सामूहिकता,परंपरागत अनुशासन आदि का सदियों पुराना मजबूत ढांचा भी पूरी तरह से चरमरा गया।5 पांच साल की सरपंची में सरपंच की आशातीत समृद्धि,ट्रैक्टर,पक्का मकान बनते देख कर ग्रामीणों का विश्वास इस प्रणाली तथा इनके अनुशासन से धीरे-धीरे उठने लग गया,और लोग उदासीन होते गए।

इन हालातों में,छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने की यह पहल देखने-सुनने में भले छोटी लगती हो,पर दरअसल यह एक बड़ी सामाजिक क्रांति का सूत्रपात हो सकता है।दरअसल यह शुरुआत मूलत: अपनी जड़ों की ओर वापस लौटने की यात्रा की तरह है,तथा अपनी स्वयं सिद्ध बहु उपयोगी परंपराओं को पुनर्जीवित करने हेतु परंपराओं की जड़ों को सींचने की भांति है।जिन लोगों को यह लग रहा हो कि यह गांव गंवई का यह भदेश शब्द ‘रोका-छेका’ भला वर्तमान व्यवस्था में क्या फर्क लाएगा,वे संभवत इसके महत्व को नहीं समझ पा रहे हैं। इसे समझने के लिए उन्हें भूपेश बघेल के अब तक के शासनकाल में इसके पीछे के दो महत्वपूर्ण सोपानो को समझना होगा।पहला है ,‌’नरवा गरवा घुरवा बाड़ी‘ और दूसरा है-गोठान।छत्तीसगढ़ में 10971 ग्राम पंचायतें हैं, तथा आबाद गांवों की संख्या -19720 है, वर्तमान में प्रदेश में लगभग 2000 गोटन की व्यवस्था की गई है। गांव और मोहल्ले पारा की पशु को दूसरे गांव के उठान में रखना व्यावहारिक व सुविधाजनक रूप से संभव नहीं हो पाता है, इसलिए इस योजना को सुचारू रूप से संचालन करने के लिए हर गांव में गोठान की व्यवस्था करनी पड़ेगी,अर्थात प्र्रदेश में लगभग 20000,बीस हजार गोठान की व्यवस्था कर दी होगी।वर्तमान में राज्य सरकार गोट खान की व्यवस्था हेतु ₹10000 दस हजार प्रतिमाह दे रही है,इस दर से प्रदेश में सभी गोठानो के संचालन हेतु लगभग 240 करोड़ रुपए सालाना की आवश्यकता पड़ेगी।

यदि इन गोठानों को गोबर,गौमूत्र आधारित जैविक खाद निर्माण तथा अन्य उपयोगी स्वरोजगार के प्रक्रमों से जोड़ दिया जाए तथा इनके उत्पादों को सही बाजार उपलब्ध करा दिया जाए,तो कालांतर में यह गोठान न केवल अपने रखरखाव की खर्च हेतु स्वालंबी बन सकते हैं,बल्कि लगभग 700 करोड रुपए प्रति वर्ष शासन को नियमित आय भी दे सकते हैं,साथ ही लगभग दो लाख स्थानीय ग्रामीण युवाओं को वर्ष भर रोजगार भी दे सकते हैं।और ‘गोठान -योजना‘ की सफलता के लिए रोका-छेका अभियान एक बेहद जरूरी प्रक्रिया है।

दरअसल यह तीनों व्यवस्थाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई है, तथा एक श्रृंखला की अलग-अलग कड़ियां हैं।यह सब गांव गांव की खेती तथा उनके पशुधन की टिकाऊ व्यवस्था से जुड़े हुए तत्व हैं।आवारा पशुओं की व्यवस्थित करने के लिए कानून आधारित जो प्रयत्न अन्य राज्यों में किए गए,उनकी घोर असफलता के दो प्रमुख कारण रहे हैं,पहला तो यह कि इस तरह का कोई भी कार्य केवल कानून के जरिए,बिना सक्रिय जनभागीदारी की संभव नहीं हो सकता, दूसरा यह कि इन तथाकथित आवारा पशुओं के लिए कोई समुचित ठौर ठिकाना,चारा पानी की वैकल्पिक व्यावहारिक व्यवस्था न होने के कारण भी ऐसे प्रयास अंततः असफल सिद्ध हुए।

भूपेश बघेल की इस पहल के पीछे उनकी “गौठान योजना” एक महत्वपूर्ण बैकअप प्लान के रूप में देखा जा सकता है।दूसरे उन्होंने हमारे गांवों की पुरानी परंपरागत गोचर व्यवस्था तथा ‘रोका-छेका’ को पुनर्जीवित करने के बहाने गांवों को फिर से उनके स्वस्फूर्त गोचर प्रबंधन,अनुशासन,तथा सामूहिक जिम्मेदारी से जोड़ने का प्रयास किया है। इस पहल का न केवल स्वागत किया जाना चाहिए बल्कि इसे सफल बनाने हेतु हर स्तर पर प्रयास आवश्यक है। शायद इसीलिए 19 जून से 30 जून तक प्रशासन ने भी इसे मिशन मोड में लागू करने संकल्प लिया है। यहां यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि हमारी बेलगाम नौकरशाही अपने निहित स्वार्थों के चलते कितने ही जन कल्याणकारी योजनाओं में पलीता लगा चुकी है।

दरअसल योजनाएं जब किसी स्वप्नदृष्टा मस्तिष्क में बनती है तो कुछ और होती हैं,तथाकथित विशेषज्ञ जब उन्हें कागजों पर उतारते हैं, तो कुछ और बन जाती हैं,और जब योजनाएं यथार्थ की धरती पर उतरती हैं तो उनका स्वरूप ही कुछ और होता है। भूपेश बघेल जी, तथा उनकी सरकार को यह ध्यान देना होगा कि हमारी ” बाड़ ही फसल चर जाने” के लिए हमेशा बदनाम रही हैं, रक्षकों को भक्षक बनने से रोकना होगा। अगर इसे जनता को विश्वास में लेकर सक्रिय जनभागीदारी के साथ पूरी सकारात्मकता के साथ लागू किया जाता है तो आए दिन सड़कों पर मवेशियों के कारण होने वाले दुर्घटनाओं से जाने वाली हजारों जानें बचाई जा सकती है तथा प्रदेश और देश के खेत, खलिहान तथा किसानों को समृद्धशाली बनाया जा सकेगा।

भूपेश बघेल की इन नए प्रयोगों पर पूरे देश के समाज शास्त्रियों तथा विशेषज्ञों की नजरें टिकी हुई है , अगर यह प्रयोग सफल होते हैं तो निश्चित रूप से देश के अन्य भागों में भी इन्हें वहां की सरकारें लागू करेंगी।इसलिए हम सब की यह शुभकामना है,कि यह प्रयोग सफल हों तथा खेती किसानी मैं निश्चिंतता तथा समृद्धि के पुराने दिन फिर से बहुरें

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