बुंदेलखंड के लोग प्राचीन संस्कृति और परंपराओं को समेटे हुए हैं. तीज त्यौहार पर सदियों से चली आ रही परंपराओं को आज भी बखूबी निभा रहे हैं. ऐसे ही दीपावली हर्ष उल्लास उमंग का त्यौहार है. जिसमें लोग छोटी-छोटी सी खुशियां भी बड़े ही चाव से साझा करते हैं.
गोपी साहू . भारत में विविधता के अनेक रंग देखने को मिलते हैं और यही हमारी विशेषता भी है। मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के लोग अपनी प्राचीन संस्कृति और परंपराओं को समेटे हुए हैं. तीज त्यौहार पर सदियों से चली आ रही परंपराओं को आज भी बखूबी निभा रहे हैं. ऐसे ही दीपावली हर्ष उल्लास उमंग का त्यौहार है. जिसमें लोग छोटी-छोटी सी खुशियां भी बड़े ही चाव से साझा करते हैं.
गौरतलब है कि दिवाली पर कुम्हार, बढ़ई, लोहार, सेन, माली, रूई वाला, आज भी अपना सामान लेकर गांव-गांव घर-घर पहुंचते हैं और अपना सामान देते हैं. ऐसे ही दिवाली पर घर घर पौनी (रुई) देने की परंपरा है. ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी गांव-गांव घूम कर घर-घर देसी रूई दी जाती है. इसके बदले में उन्हें गेहूं या चावल दिए जाते हैं.
ग्रामीण क्षेत्र के लोग दिवाली पर जलाए जाने वाले दीपक में बाजार से बत्ती के लिए रूई नहीं खरीदते हैं. वे गेहूं के बदले मिलने वाली इसी पौनी से बत्तियां बनाते हैं और दिवाली के दिन दीपक जलाते हैं.
त्रेता युग से चली जा रही परंपरा जारी
इसको लेकर गांव वालों की मान्यता है कि जब भगवान राम लक्ष्मण और सीता 14 साल बाद वनवास से अयोध्या वापस लौटे थे तब वहां पर बड़ा ही भव्य उत्सव मनाया गया था. तब से अब तक इस तरह की परंपराएं चली आ रही हैं. इसमें रूई वाला रुई देने आता है. बढ़ाई लकड़ी लगाने आता है. लोहार कील ठोकने आता है. कुम्हार दीपक देने आता है. नाऊ आम के पत्ते देने आता हैं.
अगर यह दिवाली के दिन तक नहीं आ पाते हैं तो उनके घर किसी को भेज कर बुलवाया जाता है. पता लगाया जाता है कि आखिर किस वजह से वह यह सामान देने नहीं आ पाए हैं कोई समस्या होती है तो उसमें मदद करते बनती है तो मदद करते हैं या फिर घर से ही वह सामान लाते हैं और उसके बदले गेहूं देने का जो रिवाज है देकर आते हैं.