
मैं सोच रहा हूं अगर तीसरा युद्ध हुआ तो, इस नई सुबह की नई फसल का क्या होगा…गोपालदास नीरज
मैं “सोच रहा हूं अगर तीसरा युद्ध हुआ तो, इस नई सुबह की नई फसल का क्या होगा। मैं सोच रहा हूं गर जमीं पर उगा खून, इस रंग महल की चहल-पहल का क्या होगा।
ये हंसते हुए गुलाब महकते हुए चमन, जादू बिखराती हुई रूप की ये कलियां। ये मस्त झूमती हुई बालियां धानों की, ये शोख सजल शरमाती गेहूं की गलियां।
गदराते हुए अनारों की ये मंद हंसी, ये पींगें बढ़ा-बढ़ा अमियों का इठलाना, ये नदियों का लहरों के बाल खोल चलना। ये पानी के सितार पर झरनों का गाना।
मैनाओं की नटखटी ढिठाई तोतों की, ये शोर-मोर का भोर भृंग की ये गुनगुन। बिजली की खड़क-धड़क बदली की चटक-मटक, ये जोत जुगनुओं की झींगुर की ये झुनझुन।
किलकारी भरते हुए दूध से ये बच्चे, निर्भीक उछलती हुई जवानों की टोली। रति को शरमाती हुई चांद सी शक्लें, संगीत चुराती हुई पायलों की बोली।
आल्हा की ये ललकार थाप ये ढोलक की, सूरा मीरा की सीख कबीरा की बानी, पनघट पर चपल गगरियों की छेड़छाड़, राधा की कान्हा से गुपचुप आनाकानी।
क्या इन सब पर खामोशी मौत बिछा देगी, क्या धुंध धुआं बनकर सब जग रह जाएगा। क्या कूकेगी कोयलिया कभी न बगिया में, क्या पपीहा फिर न पिया को पास बुलाएगा।
जो अभी-अभी सिंदूर लिए घर आई है, जिसके हाथों की मेंहदी अब तक गीली है। घूंघट के बाहर आ न सकी है अभी लाज, हल्दी से जिसकी चूनर अब तक पीली है।
क्या वो अपनी लाड़ली बहन साड़ी उतार, जा कर चूड़ियां बेचेगी नित बजारों में। जिसकी छाती से फूटा है मातृत्त्व अभी, क्या वो मां दफनायेगी दूध मजारों में।
क्या गोली की बौछार मिलेगी सावन को, क्या डालेगा विनाश झूला अमराई में। क्या उपवन की डाली में फूलेंगे अंगार, क्या घृणा बजेगी भौंरों की शहनाई में।
चाणक्य मार्क्स एंजिल लेनिन गांधी सुभाष, सदियां जिनकी आवाजों को दुहराती हैं। तुलसी वर्जिल होमर गोर्की शाह मिल्टन। चट्टानें जिनके गीत अभी तक गाती हैं।
मैं सोच रहा क्या उनकी कलम न जागेगी, जब झोपड़ियों में आग लगाई जाएगी। क्या करवटें न बदलेंगीं उनकी कब्रें जब, उनकी बेटी भूखी पथ पर सो जाएगी।
जब घायल सीना लिए एशिया तड़पेगा, तब वाल्मीकि का धैर्य न कैसे डोलेगा। भूखी कुरान की आयत जब दम तोड़ेगी, तब क्या न खून फिरदौसी का कुछ बोलेगा।
ऐसे ही घट चरके ऐसी ही रस ढुरके, ऐसे ही तन डोले ऐसे ही मन डोले। ऐसी ही चितवन हो ऐसी कि चितचोरी। ऐसे ही भौंरा भ्रमे कली घूंघट खोले।
ऐसे ही ढोलक बजें मंजीरे झंकारें, ऐसे कि हंसे झुंझुने बाजें पैजनियां। ऐसे ही झुमके झूमें चूमें गाल बाल, ऐसे ही हों सोहरें लोरियां रसबतियां।
ऐसे ही बदली छाये कजली अकुलाए, ऐसे ही बिरहा बोल सुनाये सांवरिया। ऐसे ही होली जले दिवाली मुस्काए, ऐसे ही खिले फले हरयाए हर बगिया।
ऐसे ही चूल्हे जलें राख के रहें गरम, ऐसे ही भोग लगाते रहें महावीरा। ऐसे ही उबले दाल बटोही उफनाए, ऐसे ही चक्की पर गाए घर की मीरा।
बढ़ चुका बहुत अब आगे रथ निर्माणों का, बम्बों के दलबल से अवरुद्ध नहीं होगा। ऐ शान्त शहीदों का पड़ाव हर मंजिल पर, अब युद्ध नहीं होगा अब युद्ध नहीं होगा।”