
एक हाथ-पैर नहीं,देश के लिए जीता गोल्ड…मेरी बेटी मेरे जिगर का टुकड़ा है,चाहे जैसी भी है मेरी बेटी है… मैं कोशिश करूंगा कि इसे हर काम करने के लायक बना सकूं और अगर नहीं भी बना पाया तो ये कभी भी मेरे लिए बोझ नहीं बनेगी
“पैर नहीं तो क्या हुआ, हौसले के पंखों से भी सपनों की उड़ान भरी जाती है” ये शब्द हैं जोधपुर के बुद्ध नगर की रहने वाली संगीता बिश्नोई के,जिन्होंने छोटी सी उम्र में एक हादसे में अपना बायां पैर और दायां हाथ गंवा दिया। इसके बावजूद संगीता ने जिंदगी से हार नहीं मानी और आज वो एक पैरा एथलीट के तौर पर जानी जाती हैं। संगीता ने अपने संघर्ष की कहानी कुछ इस तरह साझा की-
6 साल की उम्र में खोया एक हाथ और एक पैर
जब मेरे साथ ये घटना हुई तो मेरी उम्र महज 6 साल थी। मुझे थोड़ा-थोड़ा याद है कि मैं साल 1996 में मामा की शादी के लिए ननिहाल गई हुई थी। उसी दौरान अचानक खेलते-खेलते मैंने गलती से 1100 केवी के हाईटेंशन तार को हाथ लगा दिया। घरवाले आनन-फानन में मुझे अस्पताल ले गए। प्राथमिक इलाज के बाद डॉक्टर ने कहा कि मेरा एक हाथ और पैर बुरी तरह जल चुका है। सर्जरी करनी होगी, कंधे के नीचे से दायां हाथ और घुटने के नीचे से बायां पैर काटना पड़ेगा। सर्जरी हुई और मेरा दायां हाथ और बायां पैर को शरीर से काट कर अलग करना पड़ा। उम्र बहुत छोटी थी इसलिए उस समय मैं दर्द और घाव के अलावा कुछ और एहसास नहीं कर पाई।
मेरे पिता रामसुख बिश्नोई है एक किसान हैं। इसके बावजूद उन्होंने मेरे इलाज में कोई कमी नहीं छोड़ी। मैं तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी हूं और हमेशा से पापा की लाडली रहीं हूं। कई लोगों ने पापा से यह तक कहा कि अब तो इसके हाथ-पैर बेकार हो गए, जी कर भी क्या करेगी। जिएगी भी तो जिंदगी भर तुम्हें इसका बोझ उठाना पड़ेगा।
मेरे पापा को ऐसी बातें बहुत चुभती थीं। एक बार उन्होंने किसी को जवाब देते हुए कहा कि मेरी बेटी मेरे जिगर का टुकड़ा है, चाहे जैसी भी है मेरी बेटी है। मैं कोशिश करूंगा कि इसे हर काम करने के लायक बना सकूं और अगर नहीं भी बना पाया तो ये कभी भी मेरे लिए बोझ नहीं बनेगी। आज जब पापा मुझ पर गर्व महसूस करते हैं और मेरी कामयाबी पर खुश होते हैं तो मुझे बहुत खुशी होती है। पापा हमेशा लोगों से कहते हैं कि मेरी बेटी ने मुझे उस पर गर्व करने के कई मौके दिए हैं।
घाव को भरने में लगे थे डेढ़ साल
सर्जरी के बाद हर एक-दो दिन में मेरी पट्टियां बदली जाती थीं, जिसके लिए डॉक्टर ड्रेसिंग करने के लिए मेरे घर आते थे। ऐसा लगता था कि मेरे पूरे शरीर पर पट्टियां लिपटी है। मेरे घाव को भरने में करीब डेढ़ साल का समय लगा था। घाव भरने और कुछ दिन घर में रहने के बाद पिताजी ने पास के स्कूल में मेरा दाखिला करवा दिया। चौथी क्लास तक मैंने नॉर्मल बच्चों के साथ पढ़ाई की, लेकिन उसके बाद पिताजी को कहीं से पता चला कि दिव्यांग बच्चों के लिए स्पेशल स्कूल भी चलाया जाता है, जहां पढ़ाई के अलावा मेरे जैसे बच्चों को कई दूसरी चीजें भी सिखाई जाती हैं।
पिताजी हॉस्टल न भेजते तो जिंदगी न बदलती
मुझे जब पता चला कि पापा मुझे हॉस्टल भेजने वाले हैं, तो मैं बहुत रोई। मैंने मम्मी-पापा के बगैर अपनी जिंदगी के बारे में कभी नहीं सोचा था। पापा जब मुझे छोड़ने हॉस्टल गए तो मैं और पापा गले लग कर बहुत रोए। मैं पापा से कह रही थी कि ‘मुझे यहां नहीं रहना’ और पापा मुझे समझाते हुए कह रहे थे कि ‘तुम्हारी भलाई के लिए ही तुम्हें खुद से अलग कर रहा हूं बेटा।’
हॉस्टल शिफ्ट होने के बाद कुछ महीनों तक मम्मी-पापा सप्ताह में एक दिन मुझसे मिलने आते थे। मम्मी मेरे कपड़े धोकर और सारा सामान व्यवस्थित कर के जाती थी। इसके बाद वो लोग 10 दिन पर आने लगे। हॉस्टल में रहते हुए मैंने अपने सारे काम खुद करना सीख लिया, धीरे-धीरे मैं अपनी पढ़ाई और दूसरी चीजों में व्यस्त रहने लगी और मेरी जिंदगी पटरी पर आ गई।
मुझे अच्छे से याद है, स्कूल खत्म होने के बाद जब मैं कुछ दिन घर पर रही थी तो मां ने मुझे खाना बनाना सिखाया ताकि मैं खाने के लिए भी कभी किसी के भरोसे न रहूं। सब के लिए खाना बनाने के बाद मम्मी हमेशा आटे की दो लोई छोड़ती थी, जिन्हें बेलकर मैं खुद अपने लिए रोटी बनाती थी। ऐसे करते करते मैं खुद से रोटी बनाना भी सीख गई।
2003 में मिनी पैरा ओलम्पिक में जीता गोल्ड
दूसरे बच्चों को जब भी दौड़ते देखती तो मेरा मन भी दौड़ने को करता। मैंने यह बात एक दिन अपने स्कूल के पीटी सर को बताई। उन्होंने मेरे हौसले को बढ़ावा दिया और मुझसे कहा कि तुम रोज दौड़ने और दूसरे गेम्स की प्रैक्टिस करो। अगर तुम गेम्स में कुछ अच्छा कर पाई तो आगे कॉम्पिटिशन के लिए बाहर भेजूंगा।
मैंने सर की बात मानी और जमकर मेहनत की। इसी का नतीजा रहा कि मैं साल 2003 में लंदन में आयोजित मिनी पैरा ओलम्पिक गेम्स की लिए चुनी गई और मैंने क्रिकेट बॉल थ्रो में गोल्ड जीता। इतना ही नहीं, उस इवेंट में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी की ट्रॉफी भी मुझे ही मिली थी। इसके अलावा मुझे प्राइज मनी के तौर पर 215 पाउंड भी मिले थे।
मिनी पैरा ओलम्पिक में गोल्ड जीतने के बाद जब मैं भारत लौटी तो पदक जीतने वाले सभी बच्चों को तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने राष्ट्रपति भवन बुलाकर सम्मानित किया था। ये मेरी लाइफ का सबसे यादगार मोमेंट था। हॉस्टल वापस आने के बाद मैंने अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई के साथ-साथ मैं राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली कई प्रतियोगिताओं मे भाग लेती रही। राष्ट्रीय पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप 2018 में भी मैं 100 और 200 मीटर की रेस में सिल्वर मेडल और 19वीं राष्ट्रीय पैरा एथलेटिक्स चैम्पियनशिप 2021 में डिस्कस थ्रो में गोल्ड मेडल जीता चुकी हूं।
सपना है कि पैरा ओलम्पिक में गोल्ड जीत सकूं
मिनी पैरा ओलंपिक जीतने के बाद मेरे प्रति लोगों का नजरिया बदल गया। जो लोग कल तक मुझे माता-पिता और घर वालों के लिए बोझ समझते थे, वही लोग मेरी तारीफ करते नहीं थकते। स्पोर्ट्स कोटा के तहत मुझे राज्य सरकार के तरफ से क्लर्क के तौर पर नौकरी भी मिली। अब मैं अपना सारा काम खुद मैनेज करती हूं, खुद ही स्कूटी चलाकर ऑफिस भी जाती हूं। फिलहाल मैं नौकरी के साथ-साथ कोशिश कर रही हूं कि मैं दिन में कम से कम 4 घंटे प्रैक्टिस करूं। मेरा सपना है कि आने वाले पैरा ओलम्पिक में हिस्सा लेकर देश के लिए मेडल जीत सकूं।