
सत्यदर्शन..यादों की झरोखे से…वो मिट्टी और खपरैल का घर…आपको ले जाएंगे छत्तीसगढ़ के गांवों के बीच… जहा आज भी गांवों में लोगों ने स्थानीय सामग्री का प्रयोग करके मिट्टी का घर बना रहे है…
खपरैल और मिट्टी का वो घर,जहा बड़ा सा आंगन हुआ करता था ,जहाँ पूरा परिवार एकसाथ बैठकर बातचीत किया करते थे, वो तुलसी का पौधा जिसमे बड़े -बुजुर्ग जल का रोज अर्पण किया करते थे,पर्यावरण के दृष्टिकोण से कितना सुंदर हुआ करता था ,वो मिट्टी और खपरैल का घर।
भारत जैसी जगह में रहने की खूबसूरती यह है, कि यहां हर सौ किलोमीटर पर नई जगह में होने का अहसास होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि लोग बदलते हैं, उनके कपड़े, उनकी भाषा, रहन सहन सब कुछ बदलता है। और यह बात इन जगहों की वास्तुकला पर भी सच साबित होती है।
पहले हम दूसरों की नकल करने की बजाय अपनी खुद की अद्वितीय वास्तुकला विकसित किया करते थे। लोगों ने स्थानीय सामग्री का प्रयोग करके, वहां की जलवायु को समझते हुए, अपने कौशल से प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना सफलतापूर्वक आश्रयों, घरों का निर्माण किया
आंगन घर का ह्दय है, जो कि चारों ओर बने कमरों को रोशनी और हवा देता रहता है। इसके साथ ही यह एक ऐसी जगह है जहां परिवार के सदस्य इकट्ठा होते हैं, और खास तौर पर महिलाएं इनका सबसे ज्यादा प्रयोग करती हैं। वे घर के इस बाहरी भाग में बिना किसी रोक टोक के रह सकती हैं। आंगन गर्म हवा को घर से बाहर फेंक, खिड़कियों से ठंडी हवा अंदर खींच कर हवा के बहाव में भी मदद करता है।
आज के कंक्रीट और कांच के बने नीरस ढाचों में, हम वास्तविक सुंदरता और लगाव खोते जा रहे हैं। शुक्र है, यहां ऐसे लोग हैं जो कि उन प्रथाओं को जिंदा किए हुए है।
वर्तमान में उपलब्ध तकनीक के साथ-साथ ग्रामीणों द्वारा स्थानीय और प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग करके पारंपरिक वास्तुकला को आगे लाने का काम ग्रामीण क्षेत्रो में किया जा रहा है।आज भी छत्तीसगढ़ के बहुत सारे गांवों में पुरानी रीति से ही घर बनाए जा रहे है।अतिथि का आगमन जैसे ही होता है उनको एक लोटा पानी दिया जाता है यह छत्तीसगढ़ के पुराने रिवाजो में से एक है।
यहाँ की संस्कृति यहा के रिवाज,रहने का तरीका खान-पान सभी मे प्रकृति की झलक मिलती है।दुनिया गोल है इतिहास अपने आपको जरूर दुहराती है अब वो दिन दूर नही जब फिर से मिट्टी और खपरैल का घर बहुतायत मात्रा में बनने लगे।