स्कूल आते जाते शिक्षक झोपड़ीनुमा घर को देखा करते थे…शिक्षक के प्रयास से बदल गई घर की तस्वीर…यह कहानी हमे हमारी कर्तव्य का बोध कराती है कि कैसे जो अभाव में है उनकी मदद करना चाहिए

तमाम प्रकार की योजनाओं के होने के बावजूद आज भी “घर” कई लोगो का सपना है।दरअसल ऐसी बहुत सारे जरूरतमन्द हमारे आस पास रहते है।सोशल मीडिया के दौर में अपने पड़ोसियों के बारे में भी हम नही जानते।आज की कहानी में एक शिक्षक है जो अक्सर अपने स्कूल आते जाते उस झोपड़ीनुमा घर को देखा करते थे।मन तो कई बार हुआ बात करने का लेकिन हिम्मत नही जुटा पाए।वजह थी उस परिवार में बच्चो की पढ़ाई के लिए दिलचस्पी न लेना।उल्टा उन्हें कई बार सुनना भी पड़ा था।फिर भी शिक्षक श्रीकांत सिंह ने उनके लिए घर बनाकर ही दम लिया।यह कहानी हमे हमारी कर्तव्य का बोध कराती है कि कैसे जो अभाव में है उनकी मदद करना चाहिए।छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के वनांचल में यह शिक्षक बच्चों को पढ़ाने के साथ उनके परिवार की भी सुध लेता है।श्रीकांत सिंह की जुबानी जाने जिंदगी बदलने वाली आपबीती

सोचना,बोलना और करना ये 3 चीजों के अंतर्गत हमारी जिंदगी की गाड़ी चल रही है।हम जो सोचते है और बोलते है यदि हूबहू करने में ध्यान दे,तो सब कुछ बदल जाएगा।मैंने सबसे पहले घर बनाने के लिए सोचा फिर उस परिवार में जाकर बोला ।और अंततः घर बन ही गया।परिणाम आपके सामने है।मुझे पता है यह कार्य के लिए मैं एक निमित्त मात्र हूं ईश्वर मुझे केवल माध्यम बनाया है।

देर से ही सही पर सावन और उसके छोटे से परिवार को एक महफूज आशियाना मिल ही गया। ऐसे इसे शंकर शनिचरी के घर के साथ ही अप्रैल में बारिश से पहले ही पूरा हो जाना था। लेकिन मेरे कोरोना पॉजिटिव होने के कारण यह कार्य समय पर पूरा नहीं हो सका। ऐसे सावन और उसके परिवार को सावन की बारिश से महफूज न रख पाने का दुख मुझे भी है। लेकिन खुशी इस बात की भी है कि आप सभी के सहयोग से एक और परिवार को घर की चिंता से मुक्ति मिल गई है।

लगभग दो वर्ष पहले की बात होगी। संयुक्त परिवार से अलग होकर इस परिवार ने अपने लिए एक अलग आशियाना बनाने की शुरुआत की थी। पहले मुझे लगता था कि यह परिवार पलायन कर गया। 6 माह बाद मुझे पता चला कि ये लोग पुराने घर से दूर अपना घर तैयार कर रहे। जब भी मैं पालक संपर्क में जाता तो इस परिवार से जरूर मिलता था। एक साल के अंदर इन्होंने खंभे के सहारे घांस फूस का छत तैयार किया। फिर दीवार उठानी शुरू की। छत के कुछ भाग में खपरैल भी डाला। लेकिन इसके बाद काम बिलकुल अटक सा गया।

अब मैं जब भी जाता यही सवाल करता कि बाकी छत में खपरैल कब डाल रहे। लेकिन हर बार एक ही जवाब मिलता था कि” जल्दी ही लगाएंगे।” यह सिलसिला एक वर्ष तक चला। मैं भी समझ गया था कि अब इससे अधिक यह घर आगे नहीं बन सकता।।

अब पहल मैने शुरू की। मैंने उससे कहा कि”ऐसा कर शीट मैं तुम्हें दे दूंगा, पर इसके बदले तुम्हें अपने बच्चों को पढ़ाना होगा।” उसका जवाब था -“शीट के पैसे भी तो लगेंगे।” मैंने उसे आश्वस्त किया कि तुझे एक रुपए भी देने की जरूरत नहीं है। तुम्हें शीट मिलेंगे और उसे खुद तुम्हें ही लगाने होंगे। मैं लगातार जाकर उससे मिलता रहा। पर देर,, देर,,, देर,,, यही हुआ। जंगलों में काम करने में व्यवहारिक रूप से बहुत सी समस्याएं होती हैं। पैसे होने पर भी समय पर सुविधाएं नहीं मिल पाती। फिर स्कूल और घर के बीच भी सामंजस्य बैठाना होता है। हमारे साथ भी ऐसा ही था। पर जो ठान लिया वह तो करना ही था।

कुछ देर से ही पर अंततः रितेश भाई के सहयोग से शीट घर तक पहुंच गई। उन्होंने हमसे किराया भी नहीं लिया। सावन ने भी देर नहीं की और शीट मिलते ही काम शुरू किया और दो दिन के अंदर उसे लगा लिया। अब सावन और उसके परिवार को एक सुरक्षित छत मिल चुका है। अब उसने बरामदे के लिए भी दीवार उठानी शुरू की है। मुझे लगता है अब वह अपना ध्यान अन्य कार्यों में लगा पाएगा। सुमित भी लगातार 15 दिनों से स्कूल आ रहा। उसकी शिकायतें भी हम सुन रहे। उन्हें कपड़े और स्टेशनरी देने का क्रम भी अनवरत चल रहा।

इस आशियाने के लिए सहयोग करने वाले वही किरदार हैं जिन्होंने शंकर शनिचरी के लिए मदद भेजी थी। एक अन्य शिक्षक मित्र ने भी गुप्तदान के रूप में 3000₹ का सहयोग किया है। आप सभी मित्रों को सावन और मेरी ओर से हार्दिक हार्दिक धन्यवाद। इस नवरात्रि पर यही मेरी सच्ची पूजा है। दुर्गा मां आप सभी पर अपना आशीर्वाद बनाए रखे और आप सभी मुझ पर अपना विश्वास बनाए रखें।


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