रचनात्मक काम करना हो तो एकाग्रता की जरूरत होती है…बहुत अधिक शर्तों के साथ सृजन नहीं हो सकता है

“कहानी – मुंशी प्रेमचंद्र से जुड़ा किस्सा है। उनके आसपास रहने वाले सभी लोग जानते थे कि मुंशी जी के होठों पर स्याही का रंग आ जाता है, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती थी ये पूछने की कि स्याही कागज के अलावा आपके होठों पर कैसे आ जाती है।

एक कार्यक्रम में एक युवक ने मुंशी जी से पूछ लिया, ‘आप किस तरह के कागज पर और किस तरह के पेन से लिखना पसंद करते हैं?’

ये बात सुनकर मुंशी जी ने हंसते हुए कहा, ‘मैं ऐसे कागज पर लिखता हूं, जिस पर पहले से कुछ लिखा हुआ न हो यानी कोरा कागज हो और ऐसे पेन से लिखता हूं, जिसकी निप टूटी हुई न हो।’

ज्यादातर लेखक मूड बनाकर लिखना पसंद करते हैं, कुछ लोगों के तो नखरे होते हैं कि कागज ऐसा होना चाहिए, कलम ऐसी होनी चाहिए, लिहाजा वह युवक इस बारे में मुंशी जी से जानना चाहता था।

मुंशी जी ने कहा, ‘हम तो कलम के मजदूर हैं और मजदूरों को चोचले नहीं चला करते।’

उस जमाने में कलम की निप को स्याही में डूबोकर लिखा जाता था। मुंशी जी कभी-कभी निप से अपने दांत कुतर लेते थे। ये चिंतन की ही एक प्रक्रिया थी, इस वजह से कुछ स्याही उनके होंठों पर लग जाती थी।

मुंशी जी का जवाब सुनकर युवक समझ गया कि क्यों मुंशी जी का लेखन बिल्कुल अलग है।

सीख – सृजन की भी एक प्रक्रिया होती है। जिन्हें सृजन कार्य करना हो, उन्हें एकाग्रता के साथ काम में डूबना आना चाहिए। बहुत अधिक शर्तों के साथ सृजन नहीं हो सकता है।”


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