
लुई ब्रेल ने ब्रेल लिपि का आविष्कार कर नेत्रहीनों की शिक्षा की राहों को आसान बनाया…आज सैकड़ों नेत्रहीन लड़कियों तक शिक्षा का प्रकाश पहुंचाने का श्रेय जाता है मुक्ताबेन को
लुई ब्रेल ने ब्रेल लिपि का आविष्कार कर नेत्रहीनों की शिक्षा की राहों को आसान बनाया। आज सैकड़ों नेत्रहीन लड़कियों तक शिक्षा का प्रकाश पहुंचाने का श्रेय जाता है गुजरात की मुक्ताबेन को। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुक्ताबेन के कार्यों की वजह से इनके सामने नतमस्तक हो चुके हैं।
बचपन की बात है। मुक्ता तेजी से प्रिंसिपल की कमरे की तरफ जा रही थी। तेरह साल की इस दृष्टिबाधित किशोरी को तेजी से चलने में दिक्कत आ रही थी लेकिन उसे पता था कि अपनी मानसिक दिव्यांग सहेली की जिंदगी बचाने की खातिर प्रिंसिपल से मिलना जरूरी है। मुक्ता ने प्रिंसिपल को बताया कि उसकी सहेली के पेरेंट्स उसे घर ले जाने आए हैं और मुक्ताबेन चाहती थी कि उनकी सहेली को परेंट्स के न भेजा जाए क्योंकि सहेली की सौतेली मां उसका जीना दूभर कर देगी।
उनकी सहेली जब भी घर जाती थी, उसकी सौतेली मां ताने देती और मारती-पीटती थी। घर में दूसरों का बचा हुआ खाना परोसती, बालकनी में सुलाती। मुक्ता की बात सुनने के बाद प्रिंसिपल ने मानसिक दिव्यांग किशोरी को घर नहीं भेजा। लेकिन हर बार ऐसा नहीं हो सकता था। एक छुट्टी में वह किशोरी घर गयी, तो दुखभरी खबर आई।
मुक्ताबेन को पता चला कि उनकी सहेली इस दुनिया में नहीं रही। उन्हें यह भी पता चला कि शायद उनकी सहेली को जहर देकर मारा गया था। उसी दिन उन्होंने ठाना कि वह उन दिव्यांग लड़कियों की आवाज बनेंगी, जिसे परिवार और समाज बोझ समझता है।
सन 1983 तक इन्होंने बीएड की पढ़ाई पूरी कर ली थी। नेत्रहीनों को पढ़ाने के लिए स्पेशल बीएड किया था। इसके बाद उन्होंने गुजरात के अम्रेली ब्लाइंड स्कूल में अपनी सेवाएं दीं। बाद में अपने नेत्रहीन पति पंकजभाई डगली के साथ मिलकर गुजरात के सुरेंद्रनगर में अपने मकान में ही अपनी संस्था ‘प्रज्ञाचक्षु’ के नाम से शुरू की। शुरुआत में चार दिव्यांग बच्चियां ही संस्था में थीं।
आज इस संस्था की चार यूनिट हैं। सुरेंद्रनगर जिले में लड़कियों की यूनिट में करीब 200 लड़कियां हैं, जिनकाे पढ़ाया जा रहा है। इनको पहली कक्षा से बारहवीं तक की निशुल्क शिक्षा दी जाती है। इनकी किताबें भी ब्रेल में ही है। इसके अलावा इनके लिए संस्था पाठ्यक्रम की रिकॉर्डिंग्स भी उपलब्ध कराती है।
यहां रहते हुए लड़कियों को घर के हर काम का प्रशिक्षण दिया जाता है। मुक्ताबेन बताती हैं कि सामान्य लोगों के लिए घर का काम सीखना आसान होता है पर दृष्टि बाधितों को हाथ पकड़कर सिखाया जाता है। उनको होमसाइंस की ट्रेनिंग दी जाती है। आंख न होते हुए भी ये आज आसानी से सूई में धागा तक डाल लेती हैं, गुजराती, पंजाबी और चाइनीज खाना भी आसानी से बना लेती हैं। इसके अलावा लड़कियों को कम्प्यूटर, पार्लर, म्यूजिक जैसे कोर्स भी कराए जाते हैं।
इसके अलावा इन लड़कियों को शास्त्रीय संगीत और इंस्ट्रूमेंटल म्यूजिक में 8 साल का कोर्स भी कराया जाता है। यही नहीं, यहां की छात्राएं प्रतियोगी परीक्षाएं भी देती हैं। संस्था में 35 लड़कियां बहु-दिव्यांग हैं। इनकी संस्था दिव्यांग लड़कियों के साथ-साथ दिव्यांग लड़कों के लिए भी काम करती है। उनको रोजगार दिलाने में मदद करती है। उनके लिए मुफ्त आवास की सुविधा भी जुटाती है।
संस्था की लड़कियां मुक्ताबेन को मां और उनके पति पंकज डगली को पापा बुलाती हैं। मुक्ताबेन की तरह पंकजभाई भी नेत्रहीन हैं। समाज कल्याण के कार्यों के दौरान दोनों मिले। तब एक परिचित ने दोनों को शादी करने की सलाह दी। शुरुआत में मुक्ताबेन इसके लिए तैयार नहीं हुईं। उन्हें लगता था कि ससुराल के लोगों की उम्मीदों पर वे खरी नहीं उतर पाएंगी। उन्हें अपने समाजसेवा का काम भी छोड़ना पड़ सकता है, इसके लिए वे बिल्कुल तैयार नहीं थीं।
तब पंकजभाई ने उनको भरोसा दिलाया कि नेत्रहीन लड़कियों के पुनर्वास से जुड़े उनके सपनों को पूरा करने में वह हरकदम पर उनका साथ देंगे। मुक्ताबेन ने इस बात की भी शर्त रखी कि शादी के बाद वह किसी बच्चे को जन्म नहीं देंगी ताकि उनकी ममता पर केवल नेत्रहीन बच्चों का ही अधिकार रहे। आज संस्था में सबसे छोटी बच्ची चार साल की है, वह जब केवल 2.5 साल की थी, तो संस्था में आई थी।
यहां 55 ऐसी बच्चियां हैं, जिसका इस संसार में मुक्ताबेन और पंकजभाई डगली के अलावा कोई नहीं है। इनमें से कुछ रास्ते में मिलीं, कुछ को उनके घरवालों ने डस्टबिन में फेंक दिया था, कुछ को सरकारी संस्थाओं ने इनके सुपुर्द कर दिया। विवाह योग्य उम्र होने पर लड़कियों का विवाह भी कराया जाता है। इसके लिए समाज की तरफ से घरेलू उपयोग के सामान भेंट दिए जाते हैं। इस बार 30 जनवरी को 9 लड़कियों का विवाह कराया जाएगा।
हर साल 4 जनवरी को विश्व ब्रेल दिवस मनाया जाता है। फ्रांस के लुई ब्रेल ने दृष्टिबाधितों के लिए शिक्षा के महत्व को समझते हुए इस लिपि का आविष्कार किया। लुई ब्रेल केवल 3 साल के थे, जब उनकी आंखों में चोट लगी। उनके चोटिल आंखों के गहरे जख्मों की वजह से धीरे-धीरे आंखों की रोशनी चली गई। ब्रेल ने अंधेपन के शिकार लोगों को शिक्षा में मदद करने के लिए एक लिपि की रचना की जिसे बाद में ब्रेल लिपि कहा गया।
मुक्ताबेन जब 7 साल की थी, तो उनको मेनिनजाइटिस ने जकड़ लिया। इस बीमारी ने इस छाेटी सी बच्ची की आंखों की रोशनी तो छीन ली लेकिन इनका विश्वास नहीं तोड़ पाई। इनके माता-पिता इनकी हालत देखकर दुखी हो गए। इन्हीं दिनों मुक्ताबेन को अहसास हुआ कि नेत्रहीन के जीवन के अंधेरे को शिक्षा की रोशनी से ही दूर किया जा सकता है। अपने माता-पिता से जिद करके उन्होंने स्कूल में दाखिला लिया और अपनी पढ़ाई जारी रखी।
साल 2019 में मुक्ताबेन को उनके कार्यों के लिए पद्मश्री सम्मान दिया गया। इस मौके पर उनकी मुलाकात प्रधानमंत्री मोदी से भी हुई। गुजरात में कई समाराेहाें में मुक्ताबेन पीएम मोदी से मिल चुकी थीं लेकिन पद्मश्री मिलने के दौरान पीएम उनके पास आए और वहां उपस्थित मंत्रियों और अधिकारियों की ओर देखते हुए बोले, “इनको दिखाई नहीं देता लेकिन यह बहुत दूर का देख लेती हैं।”
मुक्ताबेन ने कमर दर्द की वजह से बेल्ट बांध रखी थी। उसे देखते हुए उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं चलेगा, अभी तो आपको बहुत बड़े-बड़े काम करने हैं। मुक्ताबेन आज भी अपने मिशन के लिए कमर कसकर काम रही हैं।