लोकल ट्रेन में जब नेत्रहीन दिव्यांग की सुमधुर गीत, जिसमें ट्रेन की गड़गड़ाहट एक लयबद्ध संगति करती है, सीधे दिल को छू जाती है…उनकी आवाज़ में छत्तीसगढ़ की माटी की महक और सतनाम के प्रति अगाध श्रद्धा सुनाई देती है
रायपुर की लोकल ट्रेन में जब एक नेत्रहीन दिव्यांग बाबा गुरु घासीदास जी और तपोभूमि सोनाखान के जंगलों की महिमा गाते है,तो यात्रियों का ध्यान स्वतः ही उनकी ओर आकर्षित हो जाता है। उसकी सुमधुर आवाज, जिसमें ट्रेन की गड़गड़ाहट एक लयबद्ध संगति करती है, सीधे दिल को छू जाती है। यह गीत न केवल उनकी कला का प्रमाण है, बल्कि उनके और उनकी महिला सहयोगी के जीविकोपार्जन का साधन भी है।
दिव्यांग नेत्रहीन बाबा के द्वारा गाया जाने वाला यह गीत बाबा गुरु घासीदास की तपस्या और सोनाखान के जंगलों की गाथा को जीवंत कर देता है। उनकी आवाज़ में छत्तीसगढ़ की माटी की महक और सतनाम के प्रति अगाध श्रद्धा सुनाई देती है। हर रोज़ यह युगल ट्रेन के डिब्बों में अपनी प्रस्तुति देकर न केवल अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं, बल्कि बाबा के संदेश को जन-जन तक पहुंचा रहे हैं।
गीत के बोल
ओ सोनाखान के,
दीदी ओ सोनाखान के,
भैया ओ सोनाखान के,
डहर नई मिले भैया ओ दिनमान के,
डहर नई मिले दीदी ओ दिन मान के।
भारी जंगल हावे बहिनी ओ,
भारी जंगल हावे दीदी ओ,
ओ सोनाखान के।
जपे सतनाम ल…
तोर तपसी ल बघवा भालू देखे बाबा (2),
बैठे रहे उहां ओरी ओरी के,
बाबा बैठे रहे उहां ओरी ओरी के।
तैं तो तन ल तपाए गुरु,
तैं तो मन ल तपाए गुरु।
शिक्षा
यह गीत न केवल नेत्रहीन दिव्यांग की अदम्य इच्छाशक्ति और प्रतिभा का प्रतीक है, बल्कि यह हमें सिखाता है कि चुनौतियों के बावजूद अपनी पहचान बनाई जा सकती है। बाबा गुरु घासीदास की तपोभूमि के गुणगान के साथ उनका यह प्रयास लाखों दिलों को छू रहा है और प्रेरणा दे रहा है।