
स्क्रीन टाइम, अटेंशन इकोनॉमी का हिस्सा है, पूरे विश्व में स्क्रीन पर रुकने का समय बड़ी टेक कंपनियों के मुनाफे का आधार बन चुका है
मोबाइल में बच्चे इतने घुसे रहते हैं कि वो घर से बाहर ही नहीं निकलते, मेरे गाँव के बच्चे आठ घंटे मोबाइल चलाते है;मोबाइल आने से बचपना कही खो सा गया हैं,ये कहना है छत्तीसगढ़ की भाटापारा के मोपका गाँव में रहने वाले बुधेश्वर वर्मा का । पहले वाला जो बचपना था बच्चों का, वो मोबाइल ने ख़त्म कर दिया है; पहले हम जब खेलने जाते थे, तो घर वाले बुलाते थे, लेकिन आज का बच्चा ऐसा हो गया है कि मोबाइल की वजह से घर से बाहर ही नहीं निकलता; मोबाइल की वजह से बच्चों का ध्यान न तो काम में रहता है न ही पढ़ाई में, वे जल्दी भूल रहे हैं और अकेले रहना पसंद करते हैं।”
कोरोना काल में शिक्षा का हथियार बना मोबाइल फोन
कोरोना काल के दौरान मोबाइल फ़ोन बच्चों की पढ़ाई के लिए बेहद ज़रूरी हो गया था और मोबाइल ही एक ज़रिया था, जिसकी मदद से बच्चों को घर पर ही शिक्षा दी जा रही थी। कई अभिभावकों ने क़र्ज़ पर स्मार्टफोन लेकर अपने बच्चों को दिया। इसका असर ये हुआ स्मार्टफोन लगभग हर घर का हिस्सा बन गया और खासकर छोटे बच्चों को अपना खुद का निजी स्मार्टफोन मिल गया।
इस बात से नकारा नहीं जा सकता की मोबाइल का सही तरह से प्रयोग किया जाए तो ये बच्चों की पढ़ाई के लिए वरदान साबित हो सकता है; लेकिन मोबाइल पर आने वाले तमाम सोशल मीडिया एप्लीकेशन और गेम्स इस तरह तैयार किए जाते हैं कि लोग उनमे अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय दें और इसी आधार पर अटेंशन इकोनॉमी चलती हैं।
स्क्रीन टाइम, अटेंशन इकोनॉमी का हिस्सा है, पूरे विश्व में स्क्रीन पर रुकने का समय बड़ी टेक कंपनियों के मुनाफे का आधार बन चुका है; ये आज के पूँजीवाद का नया स्वरूप है, जिसमें उपभोक्ताओं को किसी सुविधा के लिए एडिक्ट बनाया जाता है, धीरे- धीरे लोग अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए इन सुविधाओं पर निर्भर हो जाते हैं, इसे लिम्बिक कैपिटलिज्म (Limbic Capitalism)कहते हैं।
टीनएजर्स लिम्बिक कैपिटलिज्म के सबसे आसान शिकार हैं , इस आयु वर्ग के किशोर इन्टरनेट पर नए-नए आते हैं, इन पर भौतिक दुनिया में परिजनों और शिक्षकों की ढ़ेर सारी पाबंदियाँ होती हैं, जबकि इंटरनेट पर खुद को आज़ाद पाते हैं, लेकिन जल्द ही ये स्वच्छंदता एडिक्शन में तब्दील हो जाती है।
मोबाइल और बीमारियाँ
ज़्यादा फ़ोन चलाने से कई मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ हाल के दिनों में सामने आ रही हैं; जिसमे से एक हैं गेमिंग डिसऑर्डर है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) ने ऑनलाइन गेमिंग को गेमिंग डिसऑर्डर का नाम दिया है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, ‘गेमिंग डिसऑर्डर’ गेमिंग को लेकर बिगड़ा नियंत्रण है, जिसका दूसरी दैनिक गतिविधियों पर भी असर पड़ता है।
डब्ल्यूएचओ ने इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज गेमिंग डिसऑर्डर को इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज (ICD-11) के 11 वें संशोधन में गेमिंग व्यवहार (“डिजिटल-गेमिंग” या “वीडियो-गेमिंग”) के एक पैटर्न के रूप में परिभाषित किया गया है।
परिवार जहाँ माता पिता और उनके बच्चे एक साथ रहते हैं ऐसे में अगर माता पिता दोनों काम पर जाते है और बच्चे अकेले घर पर रहते है ऐसे परिवार के बच्चों में मोबाइल का आदी बन जाने की संभावना ज़्यादा बढ़ जाती है, बजाए उन बच्चों के जो संयुक्त परिवार में रहते है जहाँ माता पिता के साथ-साथ दादा- दादी, चाचा-चाची, जैसे परिवार के अन्य लोग भी एक साथ रहते हैं।
नोमोफोबिया एक नया मेन्टल डिसऑर्डर आया है, नोमोफोबिया इस स्टेज तक आ जाता है, अब ये फोबिया क्या है? नोमोफोबिया एक ऐसा डर है जो मोबाइल न होने के कारण होता है यानी मोबाइल से हम दूर हो गए तो क्या होगा? या मोबाइल न मिलने पर व्यवहार में बदलाव आना चिड़चिड़ापन होना, टेम्पर खो देना इस हद तक गुस्सा आना की चीज़े तोड़ फोड़ देना, मार पीट कर लेना, ये सब एडिक्शन के लक्षण हो जाते हैं, जिसके बाद हमारा खान पान, हमारे दोस्त, हमारी नींद सब कुछ पीछे रह जाता है।”