युवा कलमकार मुस्कुराता बस्तर की कविता…मटकी लिए,अपने आगोश में,चहलकदमी के बीच, जब तुम,इंद्रावती सी हो जाती हो ना,तो मैं भी,तीरथगढ़ सा हो जाता हूँ

*पानी जांव री,,,,*
!
मटकी लिए,
अपने आगोश में,
चहलकदमी के बीच,
जब तुम,
इंद्रावती सी हो जाती हो ना,
तो मैं भी,
तीरथगढ़ सा हो जाता हूँ।
गांव के नल में,
तुम्हारा पानी टेंडना,
टरंग-टरंग-टरंग,
फिर,
पानी निकलना,
खुत-खुत-खुत ।
मदहोशी आंखे,
लचकती कमर,
मटकते पांव,इतराती जुल्फें ।
कोटमसर की,
अंधी मछली की तरह,
अल्हड़ नयन उत्सुक दिल।
सिर पर मटकी से,
पानी का छलकना,
छलकन से,
उछलकर रोकता डारा।
छलकते पानी से,
तरबतर चेहरा,
चित्रकोट के झरने की तरह,
लहराती सतरंगी आंचल सी।
फिर,,
पीछे मुड़कर देखना,
मुचकना फिर चलना।
सातधार की वादियों,
बचेली की पहाड़ियों,
इंद्रावती के लहरों सी,
गांव गलियों में,
खिलखिलाती सौम्या,
‘बुदरी’ की तरह,
ओझल होती खो जाना,
कोरोना के इस ववंडर में,
भय से मुक्त,
उत्साह और उमंग,
सराबोर पनघट से,
पनिहारीन हो जाना,
गाय के रंभाने,
चिड़ियों की चहचहाहट,
के बीच आंखों से दूर,
फिर,,,
दूर गांव की गलियों से,
खिलखिलाती गुंजती आवाज,
पानी जांव री,,,,,।


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