जंगल और पहाड़ के बीच उपजाऊ जमीनें…खेतों में चना,बाजरा,गेहूं की फसल,लेकिन गांव गरीबी की चादर ओढ़े…वही लड़कियां मेहंदी लगे हाथों में चूड़ियां खनक रही हैं और पेचकस,रिंच जैसे औजार के साथ मोटर साइकिल के नट-बोल्ट खोलने में लगी हैं

काम कभी छोटा या बड़ा नही होता और किसी के व्यक्तित्व को कपड़े से आकलन करना भी सही नही है।हमारे आसपास ही ढ़ेरो हौसलों की कहानियां है जिन्होंने अपनी मेहनत के दम पर सब कुछ बदलकर रख दिये है।आज हम आपको ऐसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में लेकर जाएंगे जहां की युवतियां कर्मयोगिनी कहे तो अतिश्योक्ति नही होगी।मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के खालवा ब्लॉक की रहने वाली कोरकू आदिवासी समुदाय की गायत्री और मंटू मोटर साइकिल रिपेयरिंग का गैराज चलाती हैं।

यह इलाका खंडवा से करीब 50 किलोमीटर दूर है। इस ब्लॉक में 145 आदिवासी गांव हैं। जंगल और पहाड़ के बीच उपजाऊ जमीनें। खेतों में चना, बाजरा, गेहूं की फसल, लेकिन गांव गरीबी की चादर ओढ़े।सुबह के करीब 10 बज रहे हैं। गायत्री और मंटू अपनी गैराज पर हैं। मेहंदी लगे हाथों में चूड़ियां खनक रही हैं और दोनों प्लास, पेचकस, रिंच जैसे औजार के साथ एक मोटर साइकिल के नट-बोल्ट खोलने में लगी हैं।

गायत्री कहती हैं, जब हमने गैराज खोला तो गांव के लोगों ने कहना शुरू किया, ‘लड़कियों के हाथ में बेलन ही अच्छे लगते हैं। चली हो गैराज खोलने, गाड़ी के नट-बोल्ट तो खोल नहीं पाओगी। नकली मैकेनिक।’इसके बावजूद दोनों ने ठान लिया था कि हमें कुछ तो नया करना है।

इतने में मंटू सर्विसिंग के काम को थोड़ा विराम देते हुए बोल पड़ती हैं- जब लड़कियां हवाई-जहाज उड़ा सकती हैं, ट्रेन चला सकती हैं, घर चला सकती हैं, बच्चों को पाल सकती हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम कर सकती हैं, तो फिर हम अपने गांव में गैराज क्यों नहीं चला सकते हैं?

अब हम अपने पैरों पर खड़े हैं। हमारे परिवार को किसी पर आश्रित नहीं होना पड़ रहा है। कहीं पलायन भी नहीं करना पड़ रहा है।ये बातें सुनकर पलायन का दंश गायत्री की आंखों को नम कर देता है। वो बोल पड़ती हैं- हम लोग आदिवासी परिवार से आते हैं। हर कोई मजदूरी करने के लिए बरसों तक घर से दूर रहता है। दूसरे राज्यों में कम दिहाड़ी पर मजदूरी करनी पड़ती है। मालिक बंधक भी बना लेता है।

सबसे ज्यादा तकलीफ तो हम लड़कियों को रहने, नहाने में होती है। एक तो पुरुषों के बीच रहना पड़ता है। और दूसरा, वो पर्दा नहीं होता है यानी कोई बाथरूम नहीं जहां हम नहा भी पाएं।कपड़े पहने हुए ही खुले में नहाना और फिर कमरे में जाकर चादर की आड़ में कपड़े बदलना। एक दिन की बात हो, तो बर्दाश्त की जा सकती है, लेकिन महीने-छह महीने कौन सह सकता है?

गायत्री अपने बाल को सहेजते हुए कहती हैं- शहर से दूर होने की वजह से हमारे इलाके के घरों में दो वक्त का खाना हो न हो, लेकिन बाइक हर घर में जरूर है।फिर वो सवाल करती हैं, और जवाब भी देती हैं- आप शहर होते हुए आए हैं न? बाइक का थोक में जमावड़ा दिखा ही होगा।

गायत्री सच ही कह रही हैं।सब्जी मंडी की तरह बाइक के शो रूम दिखाई दिए। सड़क किनारे कुछ-कुछ दूरी पर अलग-अलग कंपनियों के शो रूम मौजूद हैं। दूरियों की वजह से यहां के लोग कहीं आने-जाने के लिए बाइक पर ही निर्भर हैं।

गायत्री अपने पलायन की पीड़ा को कहते-कहते रुक जाती हैं।इतने में मंटू बोल पड़ती हैं, मुझे तो दूसरे राज्यों में काम करने के लिए नहीं जाना पड़ा, लेकिन शहर के ही बड़े-बाबूओं के यहां शोषण का शिकार हुई। हर रोज 14-14 घंटे काम करना पड़ता था। मजदूरी मांगने पर बोला जाता- कल ले लेना, आज नहीं है। ऐसा हर दिन ही होता।

लॉकडाउन में जब हम लड़कियां गांव लौटे, तब कुछ ने गैराज खोलने का फैसला किया तो कुछ ने मोबाइल रिपयेरिंग और पशु सखी (बकरियों का इलाज करना) का काम।उनके पिताजी हल्की मुस्कान के साथ ठसक आवाज में बोलते हैं, लोग तो ताने मार सकते हैं, लेकिन हमारे घर तो नहीं चला सकते हैं न? बेटियां काम करके ही पैसे कमा रही हैं न, चोरी तो नहीं कर रहीं, डाका तो नहीं डाल रहीं।हम लोगों ने सालों तक दूसरे राज्यों में रहकर दिहाड़ी-मजदूरी की है। आज भी हमारे गांव के दर्जनों लोग पलायन कर रहे हैं।


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