जंगल में रिसोर्सेज की कमी नहीं है,बस आइडिया की जरूरत है

नवाचारी युवक भावेश वानखेड़े आदिवासियों की मदद से फॉरेस्ट प्रोडक्ट की प्रोसेसिंग करते हैं। वे शहद, हल्दी पाउडर और घी की मार्केटिंग करते हैं। भारत के साथ ही अमेरिका और सिंगापुर जैसे देशों में भी वे अपने प्रोडक्ट भेज रहे हैं। हर दिन उन्हें सैकड़ों ऑर्डर आ रहे हैं। सालाना 32 लाख रुपए उनका टर्नओवर है। इसके साथ ही 500 से ज्यादा गरीब और आदिवासियों को उन्होंने रोजगार से जोड़ा है।

भावेश मूल रूप से UP के हरदा के रहने वाले हैं। उनके पिता अमरावती में जॉब करते हैं। लिहाजा उनकी पढ़ाई-लिखाई यहीं हुई और अब वे यहीं सेट भी हो गए हैं। वे कहते हैं कि शुरुआत से ही मैं कुछ करना चाहता था, कुछ ऐसा जिससे कमाई के साथ दूसरे लोगों का भी भला हो। इसलिए ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से मास्टर्स की पढ़ाई की। उनका कैंपस प्लेसमेंट भी हुआ, लेकिन उन्होंने ऑफर एक्सेप्ट नहीं की।

भावेश मूल रूप से UP के रहने वाले हैं, लेकिन लंबे समय से महाराष्ट्र के अमरावती में रह रहे हैं।
29 साल के भावेश कहते हैं, टनौकरी को लेकर मेरी दिलचस्पी नहीं थी। परिवार के लोग भी चाहते थे कि मैं कुछ ऐसा करूं, जिसमें अपने हिसाब से काम किया जा सके। पिता जी कहते थे कि खुद नौकरी करने की जगह दूसरों के लिए जॉब क्रिएट करो। इसलिए मैंने नौकरी जॉइन नहीं की और तय किया कि खुद का ही कुछ किया जाएगा।’

‘तब मेरे दिमाग में NGO सेटअप करने का ख्याल आ रहा था। इसको लेकर मैंने कुछ NGO की प्रोफाइल खंगाली और उनके काम को समझना शुरू किया। फिर मुझे रियलाइज हुआ कि बिना NGO के भी लोगों की बेहतरी के लिए काम किया जा सकता है। जिसमें खुद की कमाई का भी स्कोप हो।’

मीडिया से बात करते हुए भावेश कहते हैं कि साल 2016 का वक्त था। तब महाराष्ट्र में प्याज की कीमतों में काफी गिरावट आई थी। किसान काफी परेशान थे। कई किसान तो कीमत नहीं मिलने की वजह से प्याज सड़कों पर फेंक रहे थे। एक तरह से आंदोलन जैसा माहौल था। मुझे लगा कि इन किसानों की मदद के लिए कुछ करना चाहिए। फिर क्या था मैंने उन किसानों से बात की और उनके प्याज को लेकर मार्केटिंग करने लगा। उन्हें दूसरे राज्यों में भेजने लगा। इससे मुझे भी कमाई हुई और उन किसानों को भी अच्छा मुनाफा हुआ।

भावेश कहते हैं कि ट्राइबल लोग पहले काम करने के लिए राजी नहीं थे। काफी समझाने और उनका भरोसा जीतने के बाद वे साथ काम करने के लिए राजी हुए।भावेश कहते हैं कि कुछ महीने तक ये काम मैंने किया। इसमें अच्छा मुनाफा हुआ, लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ कि ये हमारा मकसद नहीं है। हम धीरे-धीरे ट्रेडर बनते जा रहे हैं। इससे तो किसानों के हालात नहीं बदलने वाले हैं, क्योंकि हमेशा मेरे मन में कमाई का ख्याल रहेगा। इसके बाद मैंने कुछ नया करने का प्लान करने लगा।

अपने आइडिया को लेकर भावेश कहते हैं कि मेरे पिता घूमने के शौकीन थे। वे अक्सर जंगलों में जाते रहते थे। इसलिए जंगलों को लेकर मेरी भी दिलचस्पी थी और मैंने वहां रहने वाले ट्राइबल्स की लाइफ को करीब से देखा था। मुझे था कि जंगलों में रिसोर्सेज की कमी नहीं है। काफी पहले से ट्राइबल लोग खुद से अपने प्रोडक्ट तैयार करते रहे हैं। उनके प्रोडक्ट की क्वालिटी भी बेहतर है, लेकिन उनके पास मार्केटिंग टूल्स नहीं हैं। लिहाजा सब कुछ होते हुए भी वे बेहतर लाइफ नहीं जी पाते हैं।

वे कहते हैं कि इसको लेकर उन्होंने प्लान शुरू किया। कुछ ट्राइबल इलाकों में गए। लोगों से बात की और उनके अपने काम के बारे में समझाने की कोशिश की। हालांकि उन्हें समझाना आसान नहीं था, वे हमारी लैंग्वेज भी नहीं समझ पा रहे थे। हालांकि कुछ महीने काम करने के बाद उनके साथ तालमेल बैठ गया और वे काम करने के लिए राजी हो गए।

भावेश बताते हैं कि ट्राइबल लोग बड़े लेवल पर हल्दी और शहद की खेती करते थे, लेकिन उनका तरीका सही नहीं था। उन्हें शहद निकालने की प्रोसेस पता नहीं थी। वे एक बार में ही मधुमक्खियों के पूरे छात्ते को काट देते थे। इस वजह से ज्यादातर मधुमक्खियां मर जातीं थीं। उन्हें अलग-अलग तरह की मधुमक्खियों की पहचान भी नहीं थी। इसलिए सबसे पहले हमने उन्हें ट्रेनिंग दी। उन्हें प्रोसेस समझाया, छाते को काटने की प्रोसेस बताई।

जिस प्रोडक्ट के लिए ट्राइबल्स को 100 रुपए मिलते थे, मैंने 300 देना शुरू किया
भावेश कहते हैं कि जब जंगलों में रहने वाले लोग काम करने के लिए राजी हो गए तो मैंने 15-20 हजार रुपए की लागत से खुद का बिजनेस शुरू किया। मेरे पिता जी ने ये पैसे दिए थे। इसके बाद साल 2017 में ट्राइब ग्रोन नाम से खुद की कंपनी रजिस्टर की और अमरावती और आसपास के इलाकों में शहद की सप्लाई करने लगा। जल्द ही मुझे अच्छा रिस्पॉन्स भी मिलने लगा। इसके साथ ही इन लोगों की भी अच्छी आमदनी होने लगी।

भावेश कहते हैं कि हमारे स्टार्टअप का फायदा ट्राइबल परिवारों को हुआ है। पहले जिस प्रोडक्ट के लिए उन्हें 100 रुपए मिलते थे, आज उन्हें 300 रुपए मिल रहे हैं।वे कहते हैं कि पहले ये लोग शहद निकालते थे तो मुश्किल से इन्हें 100 रुपए मिलते थे, लेकिन जब हमने अपने साथ इन्हें जोड़ा तो उसी प्रोडक्ट के 300 रुपए देने लगे। इससे इन लोगों की आमदनी बढ़ी और धीरे-धीरे दूसरे लोग भी जुड़ने लगे।

भावेश कहते हैं कि महाराष्ट्र में ट्राइबल्स के बीच काम करने के बाद हमने दूसरे राज्यों का रुख किया। मैं मध्य प्रदेश के कुछ जिलों में गया जहां ट्राइबल लोग जंगलों में अपनी जरूरत की चीजें उगाते थे। वहां लोग बड़े लेवल पर हल्दी उगाते थे, लेकिन मार्केट में ​​अच्छी कीमत नहीं मिल पा रही थी। वे अपने प्रोडक्ट का वैल्यू एडिशन नहीं कर पा रहे थे। इसके बाद हमने उनसे बात की और उनके प्रोडक्ट खरीद लिए। फिर अपने यहां लाकर उसकी प्रोसेसिंग की। इसके बाद जब हम मार्केट में ले गए, उम्मीद से ज्यादा मुनाफा हुआ।

वे कहते हैं कि इसके बाद हमने उन लोगों तक अप्रोच करना शुरू किया जो गाय-भैंस पालते थे। हमने उनसे बात की और वे लोग हमारे लिए घी बनाने के लिए तैयार हो गए। इसके बाद हमने उनके घी की ब्रांडिंग और मार्केटिंग शुरू कर दी। इससे हमारा भी फायदा हुआ और उन किसानों का भी। इस तरह धीरे-धीरे हमारे साथ लोग जुड़ने लगे और हमारा दायरा बढ़ने लगा।।

भावेश कहते हैं कि हम लोग हर साल 6 टन से ज्यादा हल्दी पाउडर की मार्केटिंग करते हैं। जंगल में उगी हल्दी इम्यून सिस्टम के लिए काफी फायदेमंद होती है।फिलहाल भावेश के साथ महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, UP और छत्तीसगढ़ से 500 से ज्यादा ट्राइबल जुडे हैं। इनके साथ मिलकर भावेश अलग-अलग वैराइटी की शहद, हल्दी पाउडर और घी की मार्केटिंग करते हैं। जहां तक प्रोडक्शन का सवाल है, सालाना 12 टन वे शहद का प्रोडक्शन करते हैं। एक सीजन में 6 टन हल्दी पाउडर की वे मार्केटिंग करते हैं, जबकि हर महीने 200 किलो घी उनका बिक जाता है।

जहां तक मार्केटिंग का सवाल है, भावेश ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही मोड से मार्केटिंग कर रहे हैं। देश के कई शहरों में उन्होंने रिटेलर्स तैयार किए हैं। इसके साथ ही कई दुकानों से भी उन्होंने डील की है। इसके अलावा सोशल मीडिया और खुद की वेबसाइट के जरिए वे भारत और दूसरे देशों में अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग कर रहे हैं

किस तरह बनता है शहद?
शहद तैयार करने के लिए फूलों की उपलब्धता जरूरी है। जहां मधुमक्खियों के बॉक्स रखे हों, वहां तीन किलोमीटर के रेंज में फूल उपलब्ध होने चाहिए। मधुमक्खियां सबसे पहले फूलों का रस पीती हैं। इसके बाद वे वैक्स की बनी पेटी में अपने मुंह से उल्टी करती हैं। इसे चुगली भी कहते हैं। इसके बाद दूसरी मधुमक्खी उसे ग्रहण करती है और वो भी वही प्रक्रिया दोहराती है। इसी तरह एक मक्खी से दूसरी, तीसरी और फिर बाकी मधुमक्खियां भी इस प्रक्रिया में भाग लेती हैं। आगे चलकर इससे शहद बनता है। शुरुआत में इसमें पानी की मात्रा अधिक होती है, लेकिन रात में मधुमक्खियां अपने पंख की मदद से शहद से पानी अलग कर देती हैं।

देश में इस समय मधुमक्खी पालन की ट्रेनिंग के लिए कई संस्थान हैं, जहां मामूली फीस जमाकर ट्रेनिंग ली जा सकती है। नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र से भी इसके विषय में जानकारी ली जा सकती है। इसके साथ ही जो लोग मधुमक्खी पालन का काम कर रहे हैं, उनसे भी इसकी ट्रेनिंग ली जा सकती है। केंद्र सरकार आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत इस तरह के स्टार्टअप शुरू करने वालों को लागत का 40% तक सपोर्ट करती है।

10 बॉक्स के साथ कर सकते हैं शुरुआत
शहद का बिजनेस 10 बॉक्स के साथ शुरू किया जा सकता है। इसके लिए करीब 30 हजार रु. खर्च होंगे। बाद में इनकी संख्या बढ़ाई जा सकती है। एक महीने में एक पेटी से चार किलो तक शहद मिल सकता है, जिसे बाजार में 200 से 300 रुपए प्रति किलो की दर से बेचा जा सकता है। इसके साथ ही अगर हम उसकी प्रोसेसिंग करने लगे तो 500 रुपए किलो के हिसाब से भी आसानी से बेचा जा सकता है।


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