
जड़ो में समाई हुई मानसिकता को खत्म करने के लिए जनांदोलन की जरूरत हर कालखंड में रही है…सुमित्रा ने गांवों में मेंटल हेल्थ पर फोकस करके हजारों जिंदगियो को नई राह दी है
गोपी साहू:कई वर्षो पहले समाज मे कुरीतियां थी जिसका विरोध समय समय पर होते रहा है।सामाजिक बदलाव के लिए आवाज भी उठाया गया ।पुरुषप्रधान समाज मे आज भी कही न कही महिलाओं को यह दंश झेलना पड़ता है।गांव से लेकर शहर भी अब अछूता नही रहा है।महिलाओं के ऊपर तरह तरह के इल्जाम लगाए जाते है।जड़ो में समाई हुई मानसिकता को खत्म करने के लिए जनांदोलन की जरूरत हर कालखंड में रही है।आज की कहानी भी एक ऐसी महिला के इर्द गिर्द है जिन्होंने लोहा लिया इन अंधविश्वासों से।झारखंड राज्य की सुमित्रा ने गांवों में मेंटल हेल्थ पर फोकस करके हजारों जिंदगियो को नई राह दी है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में डायन समझकर महिलाओं के साथ अत्याचार और उन्हें जान से मारने के मामले बढ़े हैं। स्थानीय भाषा में इसे डायन बिसाही कहते हैं। नीति आयोग की मानें तो स्वास्थ्य के मामले में स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन हालात फिर ही खराब हैं। हालांकि शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में सुधार हुआ है। प्रति एक हजार बच्चों पर 44 बच्चों की मौत से घटकर यह 29 पर आ गई है। झारखंड के सुदूर जनजातीय अंचलों में काम कर रहीं सुमित्रा गगरई बताती हैं कि हालात सुधरे हैं, पर अभी बहुत काम करने की जरूरत है। झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में रहने वाली सुमित्रा महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर लंबे समय से काम कर रही हैं। पिछले 12 सालों से वह स्वास्थ्य के साथ-साथ महिलाओं-बच्चों के पोषण, हिंसा और शिशु मृत्यु दर कम करने की दिशा में काम कर रही हैं।
सुमित्रा सुदूर गांवों में अच्छे स्वास्थ्य को संस्कृति बनाने के मिशन पर हैं। वह अब तक 36 हजार से ज्यादा महिलाओं का जीवन बदल चुकी हैं। स्थानीय एनजीओ ‘एकजुट’ में कॉर्डिनेटर सुमित्रा स्व-सहायता समूहों और महिलाओं के बीच सेतु का काम करती हैं। मेंटल हेल्थ पर काम करने के लिए 2020 में उन्हें कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) फाउंडेशन ने हेल्थ श्रेणी के वुमन एक्जेम्प्लर अवॉर्ड से सम्मानित किया था।
31 साल की सुमित्रा झारखंड की ‘हो’ जनजाति से आती हैं। खुद भी गरीबी में जीवन बीता। सुमित्रा बताती हैं कि 16 साल की उनकी बहन मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही थी। इलाज हुआ, लेकिन जागरूकता के अभाव में घर से सहयोग नहीं मिला। उनकी बहन ने डिप्रेशन में आकर ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली थी। उस घटना के बाद उनका जीवन बदल गया। सुमित्रा कहती हैं कि झारखंड के ग्रामीण इलाकों में आज भी अंधविश्वास बहुत ज्यादा है। महिलाएं तीन-तीन दिन तक प्रसव पीड़ा झेलती रहती हैं। हर चीज का इलाज झाड़-फूंक में पहले ढूंढा जाता है। इस सबको बदलने के लिए सुमित्रा झारखंड के दर्जनों गावों में घूम-घूमकर नुक्ककड़ नाटक, कहानी के माध्यम से महिलाओं को जागरूक कर रही हैं। वह महिलाओं को खेल-खेल में अपनी समस्याएं बताने के लिए प्रेरित करती हैं।
इनके एकजुट काम की लांसेंट में भी तारीफ
सुमित्रा बताती हैं कि झारखंड में अंधविश्वास के चलते बच्चों के जन्म के बाद गर्भनाल काटने को लेकर कई कुरीतियां थीं। साफ-सफाई का भी ध्यान नहीं रखा जाता था। इसलिए नवजात बच्चों की मृत्यु दर (नियोनैटेल) बहुत ज्यादा थी। इसके बाद सुमित्रा और अन्य साथियों ने महिलाओं को खेल-खेल के माध्यम से जागरूक करना शुरू किया। एकजुट संस्था के जागरूकता मॉडल का जिक्र विख्यात मेडिकल जर्नल लांसेट में भी किया गया था।
एकजुट के प्रयासों से यहां नवजात मृत्यु दर में 45 फीसदी तक की कमी आई है। इसके अलावा महिलाओं के प्रति हिंसा में कमी के साथ पोषण को लेकर भी जागरूकता आई है। सुमित्रा कहती हैं कि झारखंड के ग्रामीण इलाकों में आज भी अंधविश्वास बहुत ज्यादा है।
महिलाएं तीन-तीन दिन तक प्रसव पीड़ा झेलती रहती हैं। हर चीज का इलाज झाड़-फूंक में पहले ढूंढा जाता है। इस सबको बदलने के लिए सुमित्रा झारखंड के दर्जनों गावों में घूम-घूमकर नुक्ककड़ नाटक, कहानी के माध्यम से महिलाओं को जागरूक कर रही हैं। वह महिलाओं को खेल-खेल में अपनी समस्याएं बताने के लिए प्रेरित करती हैं।”