सत्यदर्शन काव्य कलश…अलग अलग लकीरों पर,चलते सहयात्री के संग से बेहतर है सूनी राह..मधु चतुर्वेदी

सफर में संग चलने के बावज़ूद गर वो
अंजान है साथी के दिल के जख्मों से ,
जला रहा है शब्दों की आग से ,
साथ चलता तो लग रहा मगर रास्ते जुदा है ….
अलग अलग लकीर पर
चलते हुए ऐसे सहयात्री के संग से बेहतर है
सूनी राह अकेले तय करना

रिश्तों से खारिज होने के बाद
उम्र की सड़क पर चलती हुई लाशें देखी है
उनके जिस्म दफनाए नही जाते
चूंकि साँसे चल रही है और वे हाल भी सफर में है
सबसे हँस कर मिलती भी है
ये बेजान सी शक्लें

दुनिया को मालूम नही चलता वो दर्द
जो आँसू बन नही लुढ़का पलकों से
ख्वाहिशों की आखरी हिचकी
सुनाई नही देती जमाने को
रिश्तों के जलने की लपट
दिखाई नही देती
ये वो चलते फिरते जिस्म जिसके होने न होने से
बेअसर है दुनिया

जिनके वजूद को खारिज कर दिया कुछ अपनों ने
उनके सीने में पाताल को जाती
एक उदास लम्बी सुरंग है
रिश्तों के बाज़ार में ये गैरजरूरी सामान है
मगर फिकने से अब भी डरती है
इंतज़ार इनको अपना सफ़र खत्म होने का शिद्दत से
मगर जाने क्या है कि फिर भी नही मरती है
बर्खाश्त कर चुकी उन्हें उनकी ही दहलीज़
मगर जाए कहाँ ??
लाख ठोकर के बावजूद पड़ी है
उसी दर पर किसी वज़नी पत्थर की तरह

अलग अलग लकीरों पर
चलते सहयात्री के संग से बेहतर है सूनी राह
अकेले तय करना ….Madhu


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