World Earth Day…सारे जतन जमीन पर कम और कागजों पर ज्‍यादा दिखे आज के दिन हर साल दुनियाभर में पर्यावरण प्रेमी और सरकारें धरती को बचाने की प्रतिबद्धता को दोहराते हैं…जलवायु परिवर्तन से जानें भारत पर क्या होगा असर

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क्‍या आप जानते हैं विश्‍व पृथ्‍वी दिवस पहली बार कब मनाया गया। किस रूप में मनाया गया। सबसे पहले किस देश ने इसकी पहल की थी। इसका मकसद क्‍या था। जी हां, 22 अप्रैल 1970 को पहली बार अमेरिका ने इसे अर्थ डे के रूप में मनाया था। इसका मकसद पृथ्‍वी पर मौजूद वनस्‍पतियों एवं जीव जंतुओं को बचाना था। इसके अलावा राजनीतिक स्‍तर पर पर्यावरण संरक्षण संबंधी नीतियों को अमल में लाने के लिए दबाव बनाना था और दुनियाभर में पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करना था। अमेरिका के इस अभ‍ियान को दुनिया में काफी देशों में समर्थन मिला। 22 अप्रैल 1990 को अर्थ डे के बीसवें जन्‍मदिन पर 141 देशों में दो करोड़ से ज्‍यादा लोगों ने इसमें हिस्‍सा लिया था। आज यह पूरी दुनिया का एक अभियान ही नहीं बल्कि चिंता भी है कि इस घरती को रहने लायक कैसे रखा जाए। खास बात यह है कि विश्‍व पृथ्‍वी दिवस के दिन दुनिया के सक्षम और शक्तिशाली देश अपने मतभेदों को भुलाकर पृथ्‍वी को बचाने के लिए एक मंच साझा कर रहे हैं।

सारे जतन जमीन पर कम और कागजों पर ज्‍यादा दिखे
आज के दिन हर साल दुनियाभर में पर्यावरण प्रेमी और सरकारें धरती को बचाने की प्रतिबद्धता को दोहराते हैं। एकजुट होते हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि धरती के बढ़ते तापमान और प्रदूषण के चलते ये धरती कराह गई है। दुनिया में सक्षम देशों ने इसको लेकर चिंता भी दिखाई और प्रयास भी किए लेकिन उनके सारे जतन जमीन पर कम और कागजों पर ज्‍यादा दिखे। आखिर हम अपने इस धरती को हर पल तिल-तिल कर कैसे मार रहे हैं। आइए इस रिपोर्ट के जरिए आपको बताने का प्रयास करते हैं।

जानें क्‍या है बड़ी चिंताएं
धरती पर जलवायु परिवर्तन की घटना दुनिया के तीन अरब लोगों के लिए खतरे की घंटी है। पिछले छह हजार सालों से यह चर और अचर फलफूल रहे हैं, लेकिन अब यह धरा मुश्किल में पड़ गई है। खास बात यह है कि इसके लिए तापमान सीधे तौर पर जिम्‍मेदार है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर यूं चलता रहा तो 2070 तक यह धरती रहने लायक नहीं बचेगी। यहां का तापमान सहने लायक नहीं होगा।

संयुक्‍त राष्‍ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भले ही पेरिस जलवायु समझौते पर अमल की कोशिश की जा रही है, लेकिन इसके बावजूद दुनिया तीन डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की तरफ बढ़ रही है। ग्‍लोबन वॉर्मिंग की वजह से अगर दुनिया का औसत तापमान तीन डिग्री बढ़ गया तो एक बड़ी आबादी को इतनी गर्मी में रहना होगा कि वे जलवायु की सहज स्थिति के बाहर हो जाएंगे। इसका सबसे ज्‍यादा प्रभाव ऑस्ट्रेलिया, भारत, अफ्रीका, दक्षिण अमरीका और मध्य पूर्व के कुछ हिस्सों में पड़ेगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि एक डिग्री की वृद्धि से करीब एक अरब लोग प्रभावित होंगे।

भारत में होंगे घातक परिणाम
जलवायु परिवर्तन के हिसाब से भारत बहुत संवेदनशील देश है। वर्ष 2017 में हुए एक अध्ययन में भारत जलवायु परिवर्तन के हिसाब से दुनिया का छठा सबसे अधिक संकटग्रस्त देश था। साल 2018 में एचएसबीसी ने दुनिया की 67 अर्थव्यवस्थाओं पर जलवायु परिवर्तन के खतरे का आंकलन किया गया, जिसमें कहा गया कि क्लाइमेट चेंज की वजह से भारत को सबसे अधिक खतरा है। विश्व बैंक भी कह चुका है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण भारत को कई लाख करोड़ डॉलर की क्षति हो सकती है।

देश में पहले ही सूखे, बाढ़ और चक्रवाती तूफानों की मार झेल रहे भारत को इस सदी के अंत तक ग्लोबल वॉर्मिंग बड़ा संकट खड़ा कर सकती है। जलवायु परिवर्तन पर भारत सरकार की अब तक की पहली रिपोर्ट कहती है कि सदी के अंत तक (2100 तक) भारत के औसत तापमान में 4.4 डिग्री की बढ़ोतरी हो जाएगी। इसका सीधा असर लू के थपेड़ों (हीट वेव्स) और चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ने के साथ समुद्र के जल स्तर के उफान के रूप में दिखाई देगा।

असेसमेंट ऑफ क्लाइमेट चेंज ओवर द इंडियन रीजन नाम की इस रिपोर्ट के मुताबिक अगर जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए बड़े कदम नहीं उठाए गए तो हीट वेव्स में 3 से 4 गुना की वृद्धि दिखाई देगी और समुद्र का जलस्तर 30 सेंटीमीटर तक उठ सकता है। रिपोर्ट कहती है कि 1951 से 2015 के बीच जून से सितंबर के बीच होने वाले मॉनसून में 6 प्रतिशत की कमी हुई है। इसका असर गंगा के मैदानी इलाकों और पश्चिमी घाट पर दिखा है। रिपोर्ट कहती है कि 1951-1980 के मुकाबले 1981-2011 के बीच सूखे की घटनाओं में 27 फीसद का इजाफा हुआ है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि घटते मॉनसून के कारण सूखे की घटनाएं अधिक हो रही हैं और इससे प्रभावित क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है। 1951 से 2016 के बीच हर दशक में देश के अलग अलग हिस्सों में सूखे की औसतन 2 घटनाएं हो रही हैं । इसकी जद में आने वाला रकबा 1.3 फीसद की दर से बढ़ रहा है। मॉनसून के बदलते मिजाज को देखते हुए 21वीं सदी के अंत तक हालात और खराब होंगे।

हालात सुधारने के लिए उन मानवजनित गतिविधियों पर नियंत्रण करना होगा जिनके कारण ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ रही है। रिपोर्ट में भी इसे लेकर चेतावनी दी गई है। रिपोर्ट में कहा गया है, 21वीं सदी में मानव-जनित क्लाइमेट चेंज के बढ़ते रहने के आसार हैं। भविष्य में सही-सही क्लाइमेट प्रोजेक्शन के लिए खासतौर से क्षेत्रीय पूर्वानुमान के लिए एक रणनीतिक कार्यशैली विकसित करने की जरूरत है ताकि अर्थ सिस्टम की गतिविधियों को बेहतर समझा जा सके और निरीक्षण और क्लाइमेट मॉडल को बेहतर करें।

दरअसल, पिछली कुछ सदियों से हमारी जलवायु में बदलाव हो रहा है। मतलब दुनिया के विभिन्‍न देशों में सैकड़ों वर्षों से जो औसत तापमान बना हुआ है, वह अब बदल रहा है। धरती का औसत तापमान अभी लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है। हालांकि, भूगर्भीय प्रमाण बताते हैं कि पूर्व में ये बहुत अधिक या कम रहा है। अब पिछले कुछ वर्षों में जलवायु में अचानक तेज़ी से बदलाव हो रहा है। धरती पर मौसम की अपनी खासियत होती है, लेकिन अब इसका ढंग बदल रहा है।  गर्मियां काफी लंबी होती जा रही है। सर्दियां छोटी हो रही है। पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है। यही है जलवायु परिवर्तन। वैज्ञानिकों का मानना है कि उद्योगों और कृषि के जरिए जो गैस हम वातावरण में छोड़ रहे हैं, उससे ग्रीन हाउस गैसों में परत मोटी होती जा रही है। ये मोटी परत अधिक ऊर्जा सोख रही है। इससे धरती का तापमान बढ़ा रहा है। इसे आमतौर पर ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कहा जाता है।

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