घर-घर में फुदकती और चहकती गौरैया मिलना आम बात थी, पर आज न जाने यह कहां चली गईं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण पेड़ों के जंगलों की जगह कंक्रीट के जंगल खड़े होते जा रहे हैं। पेड़ों का अभाव और दाना पानी की अनुपलब्धता के साथ ही शहर में लगे मोबाइल के टावरों से निकलने वालीं किरणें भी इनकी कम होती संख्या में सहायक साबित हो रही है।
गौरैया चिड़िया का वैज्ञानिक नाम पासर डोमेस्टिक्स है। आज से आठ-दस साल पहले तक गौरैया घरों में फुदकती हुई आंगन और छत सहित नालियों में पड़े गेहूं, चावल, जौ आदि के दाने खाती थी। इनके लिए लोग जहां छतों और खुले स्थानों पर दाना डालते थे, वहीं पानी का भी इंतजाम किया करते थे, पर अब शहरीकरण के बढ़ते प्रभाव में लोग इसे भूलते जा रहे हैं, फलस्वरूप गौरैया विलुप्त होती जा रही हैं। गौरैया की विलुप्त होती प्रजाति को बचाने के लिए कई सामाजिक संगठन आगे आये है सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा लोगों को घोंसले बांटे गए थे। इन्हें ऐसी जगह टांगने को कहा गया था जहां पेड़ पौधे लगे हों, कारण गौरैया कंक्रीट के मकान में बच्चे पैदा करने से बचती है। वह कच्चे और ऐसे मकानों में घोसले बनाती है जहां उसे माहौल में अपनापन मिलता है।